राजस्थान के कद्दावर नेता कुम्भाराम आर्य

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...कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी, यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता।

बशीर बद्र द्वारा लिखी गई ये पंक्तियां पंजाब में जन्मे और राजस्थान में पले-बढ़े किसान नेता कुंभाराम आर्य पर बिल्कुल फिट बैठती हैं। तारीखों के हिसाब से 10 मई 1914 को वे पंजाब सूबे की पटियाला रियासत के ढूंढाल थाना क्षेत्र के गांव छोटा खैरा में पैदा हुए थे। जब वे साल भर के हुए तो उनका परिवार राजस्थान के बीकानेर रियासत की चूरू तहसील के शिवदानपुरा गांव में आ गया। इसके बाद इनका पूरा जीवन राजस्थान में ही बीता। कुंभाराम आर्य ने किसानों की राजनीति की और पंजाब में जन्म लेने के बावजूद राजस्थान के किसानों की दमदार आवाज बने। इस ब्लॉग से यह भी जानकारी दी जायेगी कि राजनीति में कैसे एक गलत दाँव से लगभग हाथ में आया मुख्यमंत्री पद दूर छिटक सकता है। 

 समाज में फैली कुरीतियों और छुआछूत को देखते हुए कुंभाराम आर्य ने अपने शुरुआती दिनों में ही आर्य समाज को अपना लिया था और इसका पालन ताउम्र किया। अपने राजनीतिक जीवन में कुंभाराम आर्य 18 मार्च 1948 को सबसे पहले बीकानेर रियासत के राजस्व मंत्री बने। आजादी के बाद 26 अप्रैल 1951 को राजस्थान राज्य के प्रथम मंत्रिमंडल में उनको गृह मंत्री बनाया गया लेकिन 1956 में उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद जब 1957 में राजस्थान में आम चुनाव हुए तो कांग्रेस ने उनको टिकट ही नहीं दी। वे 1960 में हुए राज्यसभा चुनाव में राज्यसभा सांसद चुने गए, 1964 के एक विधानसभा उपचुनाव में उनको टिकट मिली और वे इस चुनाव को जीतकर राजस्थान के राजस्व मंत्री बन गए। 

1967 में उन्होंने राजस्थान में जनता पार्टी बनाई फिर इसका 
विलय भारतीय क्रांति दल में कर दिया। इस पार्टी से वह राज्यसभा में फिर से चुन लिए गए। कुंभाराम आर्य ने इसके बाद राजस्थान किसान यूनियन का गठन किया मगर 1977 में उन्होंने कांग्रेस का दामन फिर थाम लिया। मगर पार्टी को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद वह चौधरी चरण सिंह की लोकदल पार्टी में चले गए, 1980 में लोकदल पार्टी के टिकट पर वह लोकसभा सांसद चुन लिए गए। इसके बाद उनकी राजनीतिक सक्रियता धीरे-धीरे कम होती चली गई और 26 अक्टूबर 1995 को उनका देहांत हो गया। 
अब बात आती है बशीर बद्र के शेर की कि कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी, यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता। आखिर यह पंक्तियां कुंभाराम आर्य पर फिट क्यों बैठती है। दरअसल, 1967 में कुंभाराम आर्य, दौलतराम सहारण और कमला बेनीवाल ने मिलकर राजस्थान में कांग्रेस को चुनौती शुरू कर दिया। इन तीनों नेताओं ने माहौल को काफी हद तक कांग्रेस के खिलाफ कर लिया था। इसी दौरान 1975 में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पूरे देश में आपातकाल लगा दिया था। इसके बाद तो पूरे देश में कांग्रेस विरोधी नेताओं को चुन-चुन कर जेल में डाल दिया गया।
इसमें कुंभाराम आर्य भी शामिल थे। उन्हें राजस्थान की जोधपुर जेल में डाला गया। कुंभाराम आर्य को जेल में डाले जाने का राजस्थान की जनता ने बड़ा विरोध किया। माहौल ऐसा बन गया कि पूरे राजस्थान की सहानुभूति कुंभाराम आर्य के साथ हो गई। इसके चलते वे इमरजेंसी में राजस्थान के एकछत्र नेता बनकर उभरे।

 लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था, पता नहीं, या तो कुंभाराम आर्य जेल की यातनाओं को ज्यादा समय तक सह नहीं सके या फिर उन्हें जमीनी हकीकत का पता नहीं चल सका या फिर वे भविष्य का अंदाजा लगाने में विफल हो गए। इन तीनों में से कोई भी तथ्य सही हो सकता है। राजनीतिक हलकों में कहा जाता है कि उन्होंने इमरजेंसी में जेल में रहने के दौरान इंदिरा गांधी से गुपचुप समझौता कर लिया था। इसके चलते उन्हें इमरजेंसी के दौरान ही जेल से रिहा कर दिया गया। हालांकि इस बात की कोई पुख्ता जानकारियां या प्रमाण नहीं हैं कि कुम्भाराम आर्य और इंदिरा गांधी के बीच कोई समझौता हुआ था। लेकिन इसके चलते कुम्भाराम आर्य ने द्वारा कांग्रेस पार्टी जॉइन करना चर्चाओं को बल देता ही है।

आश्चर्यजनक बात यह हुई कि जैसे ही कुम्भाराम आर्य रिहा हुए। उसके तुरंत बाद ही पूरे देश में आपातकाल भी हट गया। इसके बाद देश में लोकसभा और राजस्थान में विधानसभा चुनाव हुए। इन चुनावों में कुंभाराम आर्य कांग्रेस पार्टी की तरफ से लड़ रहे थे। अतः परिस्थितिजन्य सबूतों के आधार पर कहा जा सकता है कि कहीं ना कहीं जेल में कोई डील तो हुई ही थी। कुम्भाराम आर्य ने कांग्रेस से तथाकथित डील तो कर ली लेकिन पूरे राजस्थान में माहौल कांग्रेस के बेहद खिलाफ था। जब राजस्थान विधानसभा चुनाव के नतीजे आए तो राजस्थान की कुल 200 सीटों में से 151 विधायक अकेले जनता पार्टी के ही बन गए। कांग्रेस को महज 41 सीटें ही नसीब हुईं। जो व्यक्ति राजस्थान में जनता पार्टी का जनक था और आपातकाल के शुरुआती दौर का हीरो था वह कांग्रेस के पाले में खड़ा था।

अगर कुम्भाराम आर्य ने अपने आपको जेल से निकलवाने के लिए इंदिरा गांधी से कोई डील की थी तो वह डील कुंभाराम आर्य पर बहुत भारी पड़ी। अगर वे उस समय कांग्रेस से समझौता नहीं करते या कांग्रेस पार्टी से चुनाव नहीं लड़ते तो वे निश्चित तौर पर राजस्थान के मुख्यमंत्री बनते क्योंकि गैर कांग्रेसी दलों में उनकी टक्कर का कोई नेता नहीं था।लेकिन कहते हैं न कि इतिहास और राजनीति में 'अगर' शब्द के लिए कोई स्थान नहीं है। ऐसे में कहा जा सकता है कि शायद कुंभाराम आर्य के नसीब में मुख्यमंत्री योग था ही नहीं। हालांकि, उनको राजस्थान का किंगमेकर जरूर कहा जाता है, मगर सितम देखिए ये किंगमेकर खुद किंग बनने से चूक गया और कभी किंग नहीं बन सका !

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