12 जून 1975 को ही पड़ गई थी इमरजेंसी की नींव

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इलाहाबाद हाईकोर्ट में पेशी के लिए जाती हुईं इंदिरा गांधी.

  • 12 जून 1975 और इलाहाबाद हाईकोर्ट का रूम नम्बर 24
  • जब प्रधानमंत्री को होना पड़ा हाईकोर्ट में पेश
  • क्यों नहीं कोई भी खड़ा हुआ प्रधानमंत्री के सम्मान में
  • इमरजेंसी के लिए 25 जून की बजाए 12 जून क्यों है महत्वपूर्ण


इलाहाबाद में 12 जून 1975 की सुबह बाकी आम सुबहों जैसी नहीं थी। पूरे शहर में अजीब सा माहौल और सन्नाटा छाया हुआ था। दस बजने से पहले ही इलाहाबाद हाईकोर्ट का कमरा नंबर 24 खचाखच भर चुका था। इस कोर्टरूम में ही जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा, राजनारायण बनाम इंदिरा गांधी के मामले में अपना फ़ैसला सुनाने जा रहे थे। ये मामला 1971 के लोकसभा चुनाव का था इसमें इंदिरा ने रायबरेली लोकसभा क्षेत्र में विपक्षी उम्मीदवार राजनारायण को हरा दिया था। पूरे देश की नजरें इलाहाबाद हाईकोर्ट पर जमी हुई थीं। देश में पहली बार किसी प्रधानमंत्री को कोर्ट में पेश होना पड़ रहा था।


दरअसल इस सारे मामले के पीछे अगस्त 1969 में हुआ राष्ट्रपति का चुनाव था। इस चुनाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, बाबू जगजीवन राम को कांग्रेस का उम्मीदवार बनाना चाहती थीं लेकिन लेकिन हैरतअंगेज बात ये रही कि राष्ट्रपति उम्मीदवार के चयन के लिए आयोजित कांग्रेस संसदीय बोर्ड की बैठक में उनकी मर्जी नहीं चली। जवाहर लाल नेहरू के निधन के बाद इंदिरा गांधी के लिए राजनीति की राह बेहद कांटों भरी हो चुकी थी। कांग्रेस बोर्ड ने नीलम संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस का आधिकारिक उम्मीदवार बना दिया। बोर्ड के फैसले के बाद इंदिरा गांधी भी नीलम संजीव रेड्‌डी की उम्मीदवारी की  प्रस्तावक थीं। इसी दौरान तत्कालीन उपराष्ट्रपति वीवी गिरि ने अचानक अपने पद से इस्तीफा देकर खुद को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया।


जनसंघियों, समाजवादियों, कम्युनिस्टों और स्वतंत्र पार्टी समेत सभी विपक्षी दलों ने वीवी गिरि को समर्थन दे दिया। चुनाव के ऐन पहले इंदिरा गांधी ने कांग्रेस में अपने समर्थक सांसदों-विधायकों को नीलम संजीव रेड्डी के बजाय वीवी गिरि के पक्ष में मतदान करने का आदेश दे दिया। इंदिरा गांधी के इस दाँव से वीवी गिरि चुनाव जीत गए। लेकिन कांग्रेस में घमासान मच चुका था इतना कि 12 नवंबर 1969 को इंदिरा गांधी को अनुशासनहीनता के आरोप में पार्टी से निकाल दिया गया। इंदिरा गांधी ने तुरंत एक प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस संगठन बनाया, कांग्रेस (आर)  रिक्विजिशनिस्ट और विरोधियों की कांग्रेस का नाम पड़ा कांग्रेस (ओ) यानि ऑर्गनाइजेशन। इससे पार्टी दो फाड़ हो गई और इंदिरा गांधी की पार्टी कांग्रेस (आर) संसद में अल्पमत में आ गई।

लेकिन इंदिरा ने दृढ़ मानसिकता का परिचय देते हुए बैंकों का राष्ट्रीयकरण और पूर्व राजा-महाराजाओं के प्रिवीपर्स बन्द करके अपने आपको साहसिक और प्रगतिशील नेता के रूप में पेश करके कम्युनिस्टों समेत कुछ विपक्षी दलों का साथ ले लिया। इंदिरा गांधी ने मौका देखकर 1972 में होने वाले लोकसभा चुनावों से दो साल पहले ही दिसंबर 1970 में लोकसभा भंग कर दी।


चुनाव 1971 में हुए, इंदिरा गांधी की पार्टी को कुल 518 में से 352 सीटों पर जीत मिली जबकि उसने केवल 441 सीटों पर ही अपने उम्मीदवार मैदान में उतारे थे। इंदिरा कांग्रेस (आर) को 43.68 फीसदी वोट मिले। इस असाधारण सफलता से समूचा विपक्ष हक्का-बक्का रह गया।


सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के बाद बाहर निकलते हुए राजनारायण और शांति भूषण.


इन चुनावों में इंदिरा गांधी, रायबरेली लोकसभा क्षेत्र से एक लाख से भी ज्यादा वोटों से जीत गईं। लेकिन उनके प्रतिद्वंदी और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के प्रत्याशी राजनारायण ने इंदिरा गांधी पर धांधली, भ्रष्टाचार, सरकारी मशीनरी और संसाधनों के दुरुपयोग का आरोप लगाया। राजनारायण, रायबरेली में अपनी जीत को लेकर इतने आश्वस्त थे कि मतगणना से पहले ही उनके समर्थकों ने विजय जुलूस निकाल दिया था। लेकिन जब नतीजा आया तो उनके होश उड़ गए, वे इलाहाबाद हाईकोर्ट पहुँच गए जहाँ ये केस जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा के सामने आया। राजनारायण की याचिका में इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ सात आरोप लगाए गए थे। केस को चलते चार साल हो गए थे। अंततः मार्च 1975 में जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा की कोर्ट में दोनों पक्षों की तरफ से दलीलें पेश होने लगीं। राजनारायण की तरफ से वरिष्ठ अधिवक्ता शान्ति भूषण केस लड़ रहे थे। वही शान्ति भूषण जिनके पुत्र प्रशांत भूषण ने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में अवमानना के एक मामले में माफी मांगने से इंकार कर दिया था।

जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा, फ़ैसला देने के बाद कोर्ट से बाहर निकलते हुए.

दोनों पक्षों को सुनने के बाद जस्टिस सिन्हा ने  प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अपना बयान दर्ज कराने के लिए 18 मार्च 1975 को अदालत में पेश होने का आदेश दे दिया। इससे पूरे देश में सनसनी फैल गई। यह पहला मौका था, जब किसी मुक़दमे में पदासीन प्रधानमंत्री को कोर्ट में पेश होना था। ऐसे में 18 मार्च 1975 को इंदिरा गांधी, जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा की कोर्ट में आईं, अदालत में केवल जज के प्रवेश करने पर ही उपस्थित लोगों के खड़े होने की परंपरा है। इस पर इंदिरा के कोर्ट में प्रवेश करने से पहले जस्टिस सिन्हा ने कहा कि अदालत में इंदिरा गाँधी के आने पर किसी को खड़ा नहीं होना चाहिए। अतः प्रधानमंत्री के कोर्ट में आने पर कोई भी उनके सम्मान में खड़ा नहीं हुआ।उस दिन कोर्ट में इंदिरा गांधी को करीब पांच घंटे तक सवालों के जवाब देने पड़े।



अंतिम फैसला सुनाने की तारीख तय हुई 12 जून 1975, पूरा देश जस्टिस सिन्हा की तरफ नजरें गड़ाए हुए था। जस्टिस सिन्हा सुबह 10 बजे अदालत पहुँचे और अपना फैसला सुनाया। फैसले में कुल सात आरोपों में से पांच में तो जस्टिस सिन्हा ने इंदिरा गांधी को राहत दे दी, लेकिन दो मुद्दों पर उन्होंने इंदिरा गांधी को दोषी बता दिया। उन्होंने आदेश में लिखा कि इंदिरा गांधी ने अपने चुनाव में भारत सरकार के अधिकारियों और सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल किया है। जन प्रतिनिधित्व कानून में इनका इस्तेमाल चुनाव कार्यों के लिए करना ग़ैर-क़ानूनी था। इन दोनों मुद्दों को आधार बनाकर जस्टिस सिन्हा ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की रायबरेली की जीत अवैध घोषित कर दी। इसके साथ ही उन पर अगले छह साल तक चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया। साथ ही उन्होंने अपने फ़ैसले पर बीस दिन का स्टे भी दे दिया।

जिसने भी इस फैसले को सुना वही अवाक रह गया। ये भारत के ही नहीं, बल्कि दुनिया के किसी भी प्रधानमंत्री के खिलाफ हाईकोर्ट द्वारा इस तरह का फैसला सुनाया गया था। इंदिरा गांधी ने इसके खिलाफ 22 जून 1975 को  सुप्रीम कोर्ट के वैकेशन जज जस्टिस वीआर कृष्ण अय्यर के सामने अपील दायर की। इस पर 24 जून 1975 को जस्टिस अय्यर ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फ़ैसले पर स्टे तो दे दिया, लेकिन ये पूरा स्टे नहीं था। फैसला दिया गया था कि इंदिरा गांधी संसद की कार्यवाही में भाग तो ले सकती हैं लेकिन वोट नहीं कर सकतीं। इसके चलते इंदिरा गांधी की लोकसभा सदस्यता जारी रह सकती थी। अगले ही दिन 25 जून को जयप्रकाश नारायण ने दिल्ली के रामलीला मैदान में विरोधस्वरूप रैली की, जिसके चलते उसी दिन आधी रात को ही पूरे देश में इमरजेंसी की घोषणा हो गई। देश ने पहली बार इमरजेंसी का स्वाद चखा।


कहने को तो इमरजेंसी 25 जून को लगी पर इस पूरे प्रकरण से स्पष्ट है कि देश में इमरजेंसी की इबारत 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के रूम नम्बर 24 में ही लिखी जा चुकी थी।




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