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(राजीव गांधी की पुण्यतिथि 21 मई पर विशेष)
-सिस्टम की अच्छाई और बुराई दोनों का श्रेय लेने वाला एक अनोखा प्रधानमंत्री -राजनीति में गच्चा खाने वाला लेकिन साफगोई पसन्द नेता
-भविष्यदृष्टा और मृदुभाषी युवा प्रधानमंत्री
एक बार भारत के प्रधानमंत्री के पास दलितों के इतिहास को समझाने के लिए एक दलित नेता गए। दलित नेता ने प्रधानमंत्री को बाकायदा आँकड़ों और चार्ट के द्वारा ढ़ाई घण्टे तक भारत में सदियों से चली आ रही जातीय व्यवस्था, छुआछूत व भेदभाव को बड़ी बारीकी से समझाया।
सारी बातें सुनकर प्रधानमंत्री ने कहा "जेंटलमैन, आपने मुझे समझाने की पूरी कोशिश की मगर माफ कीजियेगा मुझे कुछ समझ में नहीं आया!"
ये थे भारत के छठे प्रधानमंत्री राजीव गांधी और दलित नेता थे कांशीराम।
इसी तरह
वर्ष 1985 में बहामास के चोगम शहर में कॉमनवेल्थ देशों का महासम्मेलन हो रहा था।
इस महासम्मेलन में विचार-विमर्श चल रहा था कि दक्षिण अफ्रीका की रंगभेद नीति के चलते उस पर प्रतिबंध लगाया जाये या नहीं। वहाँ जुटे लगभग सभी राष्ट्राध्यक्ष दक्षिण अफ्रीका पर प्रतिबंध लगाने पर राजी हो गए थे मगर ग्रेट ब्रिटेन की प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर, दक्षिण अफ्रीका पर ऐसे प्रतिबंध लगाने के खिलाफ खड़ी हो गई। ऐसी खड़ी हो गई कि वह अपने स्टैंड से टस से मस नहीं हो रही थी।अब क्या किया जाये ?
कॉमनवेल्थ देशों से अगर ग्रेट ब्रिटेन को हटा दिया जाए तो कॉमनवेल्थ देशों का कोई मतलब ही नहीं बचता, क्योंकि कॉमनवेल्थ उन देशों का संगठन है जो कभी न कभी ग्रेट ब्रिटेन के औपनिवेश रहे हैं। ऐसे में जब ग्रेट ब्रिटेन की प्रधानमंत्री ही अगर बाकी सदस्य देशों से अलग राय बना ले तो मामले की गम्भीरता को समझा जा सकता है।
अतः मार्गरेट थैचर को अनौपचारिक तरीके से मनाने के लिए एक प्रतिनिधिमंडल का गठन किया गया जिसमें कनाडा के प्रधानमंत्री ब्रायन मुलरोनी, ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री बॉब हॉक और भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी शामिल थे। बताया जाता है कि इस प्रतिनिधिमंडल में राजीव गांधी इस आधार पर शामिल किए गए कि उनमें राजनीतिक निपुणता हो या न हो पर वह इतने सुंदर और स्मार्ट हैं कि हो सकता है मार्गरेट थैचर उनके इन्हीं गुणों से प्रभावित होकर अपना निर्णय बदल लें!
इन दोनों प्रकरणों से पता चलता है कि राजीव गांधी प्रधानमंत्री तो बेशक बन गए मगर वे धरातल के नेता नहीं थे। राजनीति उन्हें विरासत में मिली थीं और उन्हें इस पद के लिए खुद पसीना नहीं बहाना पड़ा था।
उनकी शिक्षा-दीक्षा कान्वेंट और विदेशों में हुई थी। इसके चलते उनका सपना भारत को आधुनिक विकसित देशों की कतार में लाकर खड़ा करना था। उनका विजन साफ था कि आधुनिक और नवीनतम प्राद्योगिकी के बिना यह सम्भव नहीं है। अतः वे प्रधानमंत्री बनते ही भारत को इंडिया बनाने में जुट गए यानी उनका मिशन देश को मॉडर्न बनाना था।
उनके मन में निश्छलता थी, ज्यादातर अन्य राजनीतिज्ञों की तरह उनमें काइयाँपन नहीं था। वे जैसे अंदर थे, बाहर भी उसी तरह दिखाई देते थे और बेहद साफ़गोई पसन्द नेता थे। राजीव गांधी एक ऐसे नेता थे जो छल-कपट आदि से काफी हद तक दूर रहकर राजनीति करते रहे। इसके चलते उन्हें मिस्टर क्लीन भी कहा जाता था।
इसका मतलब यह नहीं कि वे राजनीति में पूरी तरह पारंगत थे, प्रधानमंत्रित्व के शुरुआती दिनों में वे काफी हद तक राजनीतिक रूप से अपरिपक्व थे और इसका खामियाजा उन्हें समय-समय पर उठाना भी पड़ा। एक समय में जो उनके सबसे विश्वसनीय सहयोगी रहे वे ही उनके साथ विश्वासघात करते चले गए मसलन अरुण नेहरू और वीपी सिंह आदि। वैसे समय के साथ-साथ उनमें राजनीतिक समझ विकसित होती चली गई।
राजीव गांधी देश के एकमात्र ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार किया था कि सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार चरम पर है। उन्होंने बयान दिया था कि सरकार, आम आदमी के लिए एक रुपया भेजती है लेकिन आम आदमी को उसमें से सिर्फ 15 पैसे ही मिलते हैं। इतनी साफगोई की हिम्मत किसी और प्रधानमंत्री ने नहीं दिखाई। सिस्टम की अच्छाई और बुराई दोनों का श्रेय लेने की आदत ही उन्हें बाकी सब प्रधानमंत्रियों से अलग करती है।
पाँच वर्षों के कार्यकाल में उनके फैसलों ने भारत की राजनीति, कूटनीति अर्थव्यवस्था, विदेश नीति, औद्योगिकीकरण, शिक्षा, आधुनिकता व कला आदि सभी आयामों पर गहरा प्रभाव डाला। ऐसा नहीं कि उनके सभी फैसले सही थे, बहुत से फैसले सही थे तो कुछ के परिणाम बेहद विनाशकारी भी थे। इतने विनाशकारी कि एक फैसले के कारण उनको अपनी जान तक गंवानी पड़ी।
20 अगस्त 1944 को मुंबई में राजीव गाँधी के जन्म के तीन साल बाद उनके नाना जवाहर लाल नेहरू भारत के प्रधानमंत्री बन चुके थे। उनकी माँ इंदिरा गांधी भी प्रधानमंत्री बनी और पिता फिरोज गांधी सांसद थे। वर्ष 1966 में राजीव ब्रिटेन में ट्रेनिंग लेकर प्रोफेशनल पायलट बनकर भारत लौटे और 1970 में उन्होंने पायलट के तौर पर एयर इंडिया ज्वाइन कर ली। जीवन के शुरूआती दिनों में राजीव गांधी की राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं थी।
लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था, 1980 में उनके छोटे भाई संजय गांधी की हवाई जहाज दुर्घटना में मृत्यु हो गई, अपनी माँ, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का साथ देने के लिए उनको राजनीति में आना पड़ा। वे संजय गांधी की अमेठी लोकसभा सीट से सांसद बने और 1981 में उन्हें यूथ कांग्रेस का प्रेसिडेंट चुना गया था। फिर अचानक 31 अक्टूबर 1984 को उनकी माँ, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हो गई। आनन-फानन में राजीव गांधी को देश के प्रधानमंत्री का कार्यभार सौंप दिया गया। उस समय उनकी उम्र मात्र 40 साल थी। यानी देश के सबसे कम उम्र के प्रधानमंत्री!
उधर, इंदिरा गांधी की मौत की खबर आते ही राजधानी दिल्ली समेत पूरे देश में हिंसा फैल गई, अगले 72 घंटों तक देश में सिखों का कत्लेआम होता रहा। लोग सहायता की गुहार लगाते रहे, मानवता शर्मसार होती रही मगर सरकारी लेवल पर दंगों को रोकने की कोई पहल नहीं दिखाई दी। राजीव गांधी ने इस अवसर पर यह कह दिया कि भारी पेड़ गिरता है तो आसपास की धरती हिलती है। लोगों ने अपने हिसाब से इसके अलग-अलग मायने निकाले। इस कत्लेआम में हजारों सिक्खों की दुःखद हत्या कर दी गई।
इसके तुरंत बाद देश में आम चुनाव हुए और कांग्रेस पार्टी ने राजीव गांधी के नेतृत्व में अभूतपूर्व प्रदर्शन किया। पहले चरण में 514 लोकसभा सीटों पर चुनाव हुआ जिसमें कांग्रेस को 404 सीटें मिलीं। बाकी बची 27 सीटों पर कुछ समय बाद चुनाव हुआ था, जिनमें से 10 सीटें कांग्रेस जीत गई। यानी लोकसभा में कांग्रेस के 414 सांसद! यह अभी तक का किसी भी पार्टी का लोकसभा चुनाव में रिकॉर्ड तोड़ प्रदर्शन है। भाजपा मात्र दो सीट ही जीत सकी थी।
राजीव गांधी आधुनिक सोच वाले युवा थे अतः वे भारत को तकनीकी रूप से समृद्ध राष्ट्र बनाने में जुट गए। डिजिटलाइजेशन और कंप्यूटराइजेशन पर राजीव गांधी ने विशेष ध्यान दिया था। कंप्यूटर तकनीक में उनका योगदान अमूल्य था। वे विदेश से पढ़कर आये थे अतः उनका मानना था कि देश की युवा पीढ़ी के लिए कंप्यूटर और विज्ञान की शिक्षा अत्यंत जरूरी है। उन्होने विज्ञान और टेक्नोलॉजी के लिए खूब बजट दिया। कंप्यूटर की कीमतें घटाने के लिए अहम फैसला लेकर इसे सरकारी नियंत्रण से अलग करके असेंबल कंप्यूटर्स का आयात शुरू किया गया। माइक्रो कंप्यूटर्स पॉलिसी की नींव रखी गई। प्राइवेट कंपनियों को 32 बिट कंप्यूटर्स बनाने का अधिकार दिया गया। दूरसंचार में क्रांति लाने के लिए अमेरिका से सेम पित्रोदा को विशेष तौर पर बुलाया गया। एमटीएनएल, बीएसएनएल और पीसीओ की स्थापना की गई।
राजीव गांधी का दृष्टिकोण बिल्कुल साफ था कि अगर भारत को 21वीं शताब्दी में जाना है तो बढ़िया शिक्षा व्यवस्था और उन्नत तकनीक के बगैर यह सम्भव नहीं है। ग्रामीण इलाकों में रह रहे प्रतिभावान गरीब बच्चों के लिए उन्होंने पूरे देश में जवाहर नवोदय विद्यालयों की जो सौगात दी उसका कोई सानी नहीं है। हालांकि आधुनिक भारत के लिए राजीव गांधी के इन फैसलों का तत्कालीन विपक्ष ने विरोध किया था लेकिन राजीव अपने मिशन में जुटे रहे।
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उनमें निर्णय लेने की अद्भुत क्षमता थी। उन्होंने युवा मताधिकार की उम्र 21 से घटाकर 18 साल कर दी, इससे उस समय करीब 5 करोड़ युवाओं को वोट देने का अधिकार मिल गया। इससे ज्यादा से ज्यादा जनता को लोकतंत्र में भागीदारी मिली। गांवों में पंचायती राज लागू करने का फैसला भी लिया गया। राजीव गांधी भारत के लिए नए युग का रास्ता प्रशस्त कर चुके थे। ऐसा नहीं कि राजीव गांधी केवल आधुनिक युग की ही चिंता करते थे उन्होंने भारत की समृद्ध प्राचीन लोककला को विदेशों तक पहुंचाने के लिए फेस्टिवल ऑफ इंडिया की शुरुआत की जिसके चलते भारत की कला-संस्कृति को पूरे विश्व में जबरदस्त पहचान मिली।
अक्तूबर 1967 को हरियाणा के एक विधायक गयालाल ने 15 दिनों के भीतर 3 बार दल-बदल कर भारत में दल-बदल की कुप्रथा को सार्वजनिक कर दिया था। इस कुप्रथा को खत्म करने के उद्देश्य से राजीव गांधी ने वर्ष 1985 में 52वें संविधान संशोधन के माध्यम से देश में दल-बदल विरोधी कानून पारित करवाया और इसे संविधान की दसवीं अनुसूची में जोड़ दिया गया।
1987 के फरवरी महीने के अंत में राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री होने के साथ-साथ वित्त मंत्री के रूप में जो बजट पेश किया वो स्वतंत्र भारत के इतिहास में मील का पत्थर बना। उन्होंने पहली बार मिनिमम कॉरपोरेट टैक्स का प्रावधान किया था। इसके तहत सभी कंपनियों को अपने बुक प्रॉफिट का 15 फीसदी टैक्स भरना था। इससे उन बड़ी कंपनियों पर नकेल कसी गई जो बड़ा मुनाफा कमाती थीं और अपने शेयरधारकों को डिविडेंड्स भी देती थी लेकिन टैक्स बहुत कम भरती थीं या भरती ही नहीं थीं।
भारत की कम्प्यूटर इंडस्ट्री और प्रौद्योगिकी को रफ्तार देने के लिए राजीव गांधी ने 30 करोड़ रुपये में अमेरिका से क्रे नामक सुपर कंप्यूटर खरीदने की पेशकश की, लेकिन अमेरिका ने इंकार कर दिया। राजीव गांधी ने तुरंत एक बड़ा फैसला लिया और 1988 में पुणे में सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑफ एडवांस्ड कंप्यूटिंग यानी सी-डैक की स्थापना करके उसे 30 करोड़ रुपए देकर तीन साल के अंदर स्वदेशी सुपर कंप्यूटर बनाने का लक्ष्य दे दिया। सी-डैक ने बिल्कुल भी निराश नही किया उसने 1990 में सुपर कंप्यूटर का प्रोटोटाइप मॉडल बनाकर उसी साल ज्यूरिख में हुए सुपर कंप्यूटिंग शो में भाग लेकर दुनिया के लगभग सभी देशों के कंप्यूटर्स को पछाड़ दिया। भारत इस शो में अमेरिका के बाद दूसरे नंबर पर रहा था। अंततः सी-डैक ने 1 जुलाई 1991 को भारत का पहला सुपर कंप्यूटर परम 8000 बना दिया। सारी दुनिया भारत की इस कामयाबी से आश्चर्यचकित रह गई। परम सुपर कंप्यूटर इतना शक्तिशाली था कि यह परमाणु हथियारों के विकास में भी योगदान दे सकता था। राजीव गांधी एक फिर देश को विश्वस्तरीय आधुनिक प्राद्योगिकी के क्षेत्र में आगे लाने में महत्वपूर्ण साबित हुए।
लेकिन ऐसा नहीं है कि राजीव गांधी के हर फैसले सराहनीय ही रहे हों वे अपनी नाकामियों और खराब फैसलों के लिए भी याद रखे जाएंगे।
राजीव गांधी के सत्ता संभालते ही भोपाल में 2-3 दिसंबर 1984 की रात भोपाल गैस कांड हो गया। इसमें यूनियन कार्बाइड नामक अमेरिकी कम्पनी के प्लांट से लापरवाही से लीक हुई मिथाइल आइसोसाइनाइट (मिक) गैस से हजारों लोग मारे गए और लाखों गम्भीर बीमारियों से पीड़ित हो गए। इस त्रासदी के बाद यूनियन कार्बाइड का मुख्य प्रबंध अधिकारी वॉरेन एंडरसन रातों-रात भारत छोड़कर अपने देश अमेरिका भाग गया था। उस समय मध्यप्रदेश में भी कांग्रेस सरकार सत्ता में थी। आरोप लगाया जाता है कि केंद्र और राज्य सरकारें सतर्क होतीं या एंडरसन का सहयोग नहीं करतीं तो उसे गिरफ्तार किया जा सकता था।
इसके बाद शाहबानो तलाक केस का प्रकरण हुआ। इसमें सुप्रीम कोर्ट ने 23 अप्रैल 1985 को शाहबानो के हक में फैसला सुनाते हुए मेहर के अलावा हर महीने 500 रुपये गुजारा भत्ता देने का आदेश दे दिया था। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का मुस्लिम संगठनों ने धर्म और शरियत में दखल कहकर घोर विरोध किया। शुरुआत में राजीव सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के समर्थन में थे। लेकिन उनको लगा कि कहीं मुस्लिम वर्ग इसकी वजह से कांग्रेस से नाराज न हो जाये। अतः वे 1986 में एक बिल ले लाए जिसके तहत मुस्लिम पुरुषों को मेहर और गुजारा भत्ता सिर्फ तीन महीने तक ही देना था, यह बिल दोनों सदनों में पास हो गया। सभ्य समाज में इस बिल की काफी आलोचना हुई क्योंकि इससे मुस्लिम स्त्रियों के अधिकारों का हनन हुआ था और राजीव गांधी ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को कानून के जरिये पलट दिया था।
इसी दौरान 1 फरवरी 1986 को फैजाबाद के डिस्ट्रिक्ट जज के. एम. पांडेय ने महज एक दिन पहले यानी 31 जनवरी, 1986 को दाखिल की गई एक अपील पर त्वरित सुनवाई करते हुए अयोध्या में करीब 37 साल से बंद पड़ी बाबरी मस्जिद का गेट खुलवा दिया था। चर्चा थी कि तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के इशारे पर ऐसा इसलिए किया गया था ताकि हिन्दू समुदाय को खुश किया जा सके। हालांकि इस बारे में राजीव गांधी का कहना था कि किसी भी धार्मिक स्थल के कामकाज में हस्तक्षेप करना सरकार का काम नहीं है और मुझे इस बारे में तब तक कुछ पता नहीं था जब तक कि आदेश पारित नहीं हो गया और मुझे इस बारे में बताया नहीं गया। वैसे इस प्रकरण को भारतीय जनता पार्टी ने हाथों-हाथ लपक लिया और इसके दूरगामी परिणाम हुए। भारत की राजनीति में हिंदुत्व फैक्टर उत्तरोत्तर जोर पकड़ता चला गया और इस मुद्दे को भुनाकर बाद में अनेक राज्यों समेत केंद्र में भाजपा की सरकारें बनीं।
24 मार्च, 1986 को भारत सरकार और स्वीडन की हथियार निर्माता कंपनी एबी बोफोर्स के बीच 1437 करोड़ रुपये में 155 एमएम की 400 होवित्जर तोपों का सौदा हुआ। इस सौदे में सब कुछ सामान्य दिखाई दे रहा था लेकिन 16 अप्रैल 1987 को स्वीडिश रेडियो ने दावा किया कि एबी बोफोर्स कंपनी ने इस सौदे के लिए भारत के वरिष्ठ राजनीतिज्ञों और रक्षा विभाग के अधिकारियों को 60 करोड़ रुपये की रिश्वत दी है। इस रहस्योद्घाटन ने भारत की राजनीति में भूचाल ला दिया। इस मामले में आरोपी इटली के बिजनसमैन ओत्तावियो क्वात्रोची की राजीव गांधी परिवार से कथित नजदीकी सवालों के घेरे में आ गई। विपक्ष तो क्या अनेक कांग्रेसी नेता भी इस मामले में राजीव गांधी के विरोध में उतर आए आखिरकार यही मुद्दा 1989 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हार का बड़ा कारण बना।श्रीलंकाई उग्रवादी संगठन पीपुल्स लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन ऑफ तमिल ईलम के हथियारबंद उग्रवादियों ने 3 नवंबर 1988 को मालदीव की राजधानी माले पहुँचकर वहाँ के प्रमुख सरकारी भवनों, एयरपोर्ट, बंदरगाह और टेलीविजन स्टेशन पर कब्जा कर लिया। वे तत्कालीन राष्ट्रपति मामून अब्दुल गय्यूम की सरकार का तख्तापलट करने आये थे। इससे घबराकर गय्यूम ने अनेक देशों को इमरजेंसी संदेश भेजा। भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी यह संदेश पाकर एकदम हरकत में आए और आगरा छावनी से भारतीय सेना की पैराशूट ब्रिगेड के 300 जवान तुरंत माले भेज दिए गए। ब्रिगेडियर फारुख बुलसारा के नेतृत्व में भारतीय सेना ने दो दिन के भीतर स्थिति पर काबू पा लिया और गय्यूम के तख्तापलट की कोशिश नाकाम कर दी। इस कमांडो कार्रवाई में 19 लोग मारे गए जिनमें ज्यादातर उग्रवादी थे, केवल दो बंधकों की ही जान गई। लेकिन भारतीय सेना को कोई जनहानि नहीं हुई। इस कार्यवाही को नाम दिया गया ऑपरेशन कैक्टस। इसको आज भी दुनिया के सबसे सफल कमांडो ऑपरेशनों में गिना जाता है क्योंकि अनजानी विदेशी धरती पर केवल एक टूरिस्ट मैप के जरिये भारतीय सेना ने इस सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम दिया था।
संयुक्त राष्ट्र संघ, अमेरिका और ब्रिटेन आदि अनेक देशों ने भारतीय कार्रवाई की बड़ी तारीफ की। इससे राजीव गांधी की विदेश नीति का डंका विश्व स्तर पर बजा। लेकिन राजीव गांधी या कांग्रेस पार्टी ने राजनीतिक लाभ के लिए इस सर्जिकल स्ट्राइक का सार्वजनिक रूप से ढिंढोरा नहीं पीटा।
लेकिन ऑपरेशन कैक्टस की सफलता से यह नहीं माना जाना चाहिए कि राजीव गांधी ने विदेश नीति में हर फैसला सही ही लिया हो। उनसे भयंकर चूकें भी हुईं, जिनका खामियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ा।
भारत के पड़ोस में ही स्थित श्रीलंका की की कुल जनसंख्या डेढ़ करोड़ थी जिसमें भारतीय मूल के तमिल लगभग 10 प्रतिशत थे। उनके और श्रीलंकाई मूल के सिंघली लोगों के बीच तनातनी चल रही थी। बताया जाता है कि भारत की सहानुभूति श्रीलंका में रह रहे तमिलों और उनके संगठन, लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम (लिट्टे) के साथ थी। वर्ष 1983 में लिट्टे के गुरिल्ला सैनिकों ने 13 श्रीलंकाई सैनिक मार दिए इसके चलते वहाँ तमिलों और सिंघलियों के बीच गृह युद्ध शुरू हो गया। फिर वर्ष 1987 में श्रीलंका ने लिट्टे और तमिलों के गढ़ जाफ़ना में मिलिट्री शासन लागू करके हवाई हमलों से बेगुनाह तमिल नागरिकों को मारना शुरू कर दिया, अतः भारत को बीच-बचाव करने के लिए मैदान में उतरना पड़ा। भारत ने तुरंत ऐलान कर दिया कि वह वायुसेना के द्वारा जाफ़ना में सहायता पहुँचायेगा। इस धमकी से श्रीलंका डर गया और तुरंत ही लिट्टे से समझौता करने पर राज़ी हो गया।
राजीव गांधी ने कोलंबो में 29 जुलाई 1987 को शांति मसौदे पर भारत सरकार, श्रीलंका सरकार व लिट्टे समेत तीनों पक्षों के बीच एक संधि करवा दी। लिट्टे को शस्त्रहीन करने, श्रीलंकाई सेना की वापसी और जाफ़ना में चुनाव होने तक शांति बहाल करने का जिम्मा भारत ने अपने ऊपर ले लिया। हस्ताक्षर करने के अगले ही दिन राजीव गांधी पर कोलंबो में गार्ड ऑफ़ ऑनर के समय एक सिंहली सैनिक ने नाराजगी जाहिर करने के लिए उन पर राइफल के बट से हमला कर दिया। राजीव गांधी के लिए खतरे की घण्टी बज चुकी थी।
इस समझौते के तहत दोनों पक्ष लड़ाई रोकने पर राजी हो गए। भारत इसलिए भी इस पचड़े में पड़ा क्योंकि भारत का मानना था कि इस मसले का हल नहीं निकाला गया तो श्रीलंका अमेरिका, पाकिस्तान या चीन में से किसी देश को अपने यहाँ बुलाकर उनसे सहायता ले सकता है जो भारतीय सामरिक हितों के खिलाफ जा सकती है। राजीव गांधी की सोच यह भी थी अगर श्रीलंकाई तमिलों की सहायता नहीं की गई तो भारत के लगभग 8 करोड़ तमिल भारत सरकार से नाराज हो जाएंगे।
यहीं भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी गच्चा खा गए और अब उनकी कूटनीति चारों खाने चित्त होने वाली थी।
राजीव ने ऑपरेशन पवन के तहत इंडियन पीस कीपिंग फ़ोर्स (आईपीकेएफ़) या भारतीय शांति सेना का गठन करके भारतीय सेना को आधी-अधूरी तैयारी के साथ श्रीलंका भेज दिया। भारत मान रहा था कि लिट्टे भारतीयों से नहीं लड़ेंगे मगर लिट्टे ने धोखा दे दिया और आईपीकेएफ़ को दुश्मन मानकर उस पर प्राणघातक हमले शुरू कर दिए। बीस हजार भारतीय सैनिक विकट स्थिति में फँस गए। वे जिन तमिलों को बचाने गए थे वे ही उनकी जान के दुश्मन बन गए, सिंघली तो पहले ही दुश्मन थे। भारतीय सेना को कदम-कदम पर लड़ना पड़ा। बारूदी सुरंगों, छापामार लड़ाई और तमिल नागरिकों के असहयोग के चलते 32 महीनों में 1200 भारतीय सैनिक शहीद हो गए श्रीलंका के भी पाँच हजार लोग मारे गए। अति प्रशिक्षित भारतीय सेना को धरातल की सच्चाई जाने बगैर, आधी-अधूरी तैयारी के साथ भेजे जाने से ऑपरेशन पवन की हवा निकलने लगी।
इसके कुछ समय बाद 1989 में हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस हार गई और विश्वनाथ प्रताप सिंह भारत के अगले प्रधानमंत्री बन गए और उन्होंने 1990 में श्रीलंका में भारतीय सेना की यह कार्रवाई रोककर अपने सैनिकों को वापस बुला लिया। इस पूरे प्रकरण से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय विदेश नीति की बेहद किरकिरी हुई।
जाफना में सेना भेजने से क्षुब्ध लिट्टे अब राजीव गांधी की जान का दुश्मन बन चुका था। आखिरकार 21 मई 1991 को तमिलनाडु के श्रीपेरम्बदूर में रात को एक चुनावी जनसभा में लिट्टे ने एक मानव बम से आत्मघाती हमला करके राजीव गांधी की हत्या कर दी। देश को बीसवीं शताब्दी में ही 21वीं शताब्दी का रास्ता प्रशस्त करने वाले इस नेता के साथ 21 अंक की संख्या ऐसे जुड़ेगी इसकी कल्पना किसी ने भी नहीं की थी! पूरा देश स्तब्ध और अवाक रह गया। भारत को कम्प्यूटर युग में ले जाने वाला 21वीं शताब्दी की सोच रखने वाला मॉडर्नाइजेशन पसन्द राजनेता चिरनिद्रा में सो चुका था। लेकिन देश निश्चित तौर पर आधुनिक युग में प्रवेश कर चुका था।
राजीव गांधी का असमय निधन देश के लिए वाकई अपूरणीय क्षति था। बेशक उनके कुछ फैसले विवादित रहे हों लेकिन इस बात को कोई झुठला नहीं सकता कि भारत के कम्प्यूटर साइंस्टिस्टों और कम्प्यूटर इंजीनियरों का पूरे विश्व में जो आज डंका बज रहा है उसके मूल में राजीव गांधी ही हैं। उन्ही की बदौलत आज भारत साफ्टवेयर बनाने वाले विश्व के अग्रणी देशों में शुमार है।
अगर वे कुछ समय और जीवित रहते और भविष्य में फिर से प्रधानमंत्री बन जाते तो भारत प्राद्योगिकी के क्षेत्र में निश्चित तौर पर सिरमौर होता।
लेकिन दुर्भाग्य से इतिहास में 'अगर' शब्द के लिए कोई स्थान नहीं है।
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human saarthi |
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Bharat saarthi |
वर्ष 1991 का वह मनहूस दिन कभी नही भुलाया जा सकता ।भारतीय राजनीति में कांग्रेस ने राजीव के साथ ही अपना तत्व भी खो दिया था और पतनोन्मुख हो चुकी थी।मेरे लेखक मित्र ने बहुत ही क़रीने से इस जीवन यात्रा को अपने शब्दों में पिरोया है।यदि मुझे इस लेख की सम्पादित करने के लिए कहा जाए तो कहीं भी अपनी लेखनी नही टीका पाऊँगा।संक्षिप्त परंतु अति सरल एवं सुंदर ।
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