अलविदा चैम्पियन उड़न सिख
(उड़न सिख मिल्खा सिंह के निधन पर विशेष)
- पाकिस्तान क्यों नहीं जाना चाहते थे मिल्खा सिंह
- क्या मिल्खा सिंह कभी अपराध में जेल गए थे
- जीतने की खुशी में क्या मांगा था जवाहरलाल नेहरू से
- मिल्खा सिंह को उड़न सिख नाम किसने दिया
- मिल्खा सिंह ने अर्जुन पुरस्कार लेने से मना क्यों कर दिया था
कुछ लोगों की बेहूदा मानसिकता के कारण देश का दुर्भाग्य रहा है कि शूरवीरता, अदम्य साहस, दानवीरता, मानवीयता, बलिष्ठता, समभाव और धार्मिक समरसता के प्रतीक सिख पंथ पर बेहद फूहड़ और अपमानजनक चुटकले बनाए जाते रहे हैं, हालांकि ऐसे चुटकलों पर रोक लगाने को लेकर 2015 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी दायर की गई थी।
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खैर, मुझे बचपन में हमारे एक स्कूल टीचर द्वारा सुनाया गया इसी तरह का एक मजाक याद आ रहा है।
मजाक इस तरह से था कि भारत के मशहूर धावक मिल्खा सिंह दौड़ने में तो बेमिसाल थे पर उनकी अंग्रेजी उतनी बढ़िया नहीं थी। इस मजाक के अनुसार वो थोड़ी-बहुत अंग्रेजी समझ और बोल लेते थे। एक बार वो किसी एथलेटिक्स प्रतियोगिता में भाग लेने विदेश गए वहाँ वे एक पेड़ के नीचे सुस्ता रहे थे। इतने में वहां एक अंग्रेज आ गया और उनसे पूछा "आर यू रिलेक्सिंग?" तो मिल्खा सिंह ने जवाब दिया "नो, आई एम मिल्खा'सिंह'!" मजाक यह था कि मिल्खा सिंह को यह लगा कि अंग्रेज को उनका नाम पूछ रहा है। यह मजाक सुनकर सारी क्लास हँस दी लेकिन हमें यह नहीं पता था कि एक टीचर की नालायकी के कारण हम किस तरह हमारे एक राष्ट्रीय गौरव का मजाक उड़ा रहे हैं।
खैर, जब अच्छी तरह होश संभाला तो उनके प्रति श्रद्धा और कौतूहल बढ़ता चला गया। देश का ये अप्रतिम धावक 18 जून 2021 को हमारे से बहुत दूर अनन्त की दौड़ पर चला गया है।
मिल्खा सिंह का जीवन अभावों और नायकत्व का अनूठा संगम रहा है। अगर मिल्खा सिंह के खेल के कैरियर को देखें तो उन्होंने 1958 राष्ट्रमंडल खेलों में एक और एशियाई खेलों में चार स्वर्ण पदक जीते। लेकिन उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि वह दौड़ थी जिसमें वे कोई पदक नहीं जीत पाए। जी हाँ, 1960 के रोम ओलंपिक के 400 मीटर के फाइनल में वे अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी से 0.1 सेकेंड के अंतर से चौथे स्थान पर रहे। उनकी यह टाइमिंग बहुत सालों तक भारत का राष्ट्रीय रिकॉर्ड रही।
मिल्खा सिंह का जन्म अविभाजित भारत के पाकिस्तानी पंजाब के गोविंदपुरा के गांव में हुआ था। देश के विभाजन के दौरान हुई हिंसा में उनके माता पिता की हत्या हो गई। उस समय मिल्खा की उम्र महज 15 साल थी। वे परिवार के बाकी सदस्यों के साथ भारत आ गए। उन्होंने पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के बाहर जूते पॉलिश करके गुजर-बसर करना शुरू किया। अभावों के चलते वे ट्रेनों से सामान भी चुराते पकड़े गए इसके चलते उन्हें जेल भी जाना पड़ा। उनकी बहन ईश्वर ने अपने गहने बेचकर उन्हें छुड़ाया।
मिल्खा सिंह इस तरह की जिंदगी से तंग आ चुके थे अतः उन्होंने सेना में भर्ती होने का निश्चय किया। सेना में भर्ती होने के पहले तीन बार प्रयासों में वे नाकाम रहे। लेकिन चौथे प्रयास में वे 1952 में सेना की विद्युत मैकेनिकल इंजीनियरिंग शाखा में शामिल होने में सफल हो गये। सशस्त्र बल के कोच हवलदार गुरुदेव सिंह ने उन्हें दौड़ के लिए प्रेरित किया। उन्हें पहली पोस्टिंग मिली थी सिकंदराबाद में और यहीं से उन्होंने ट्रैक पर दौड़ना शुरू किया। मिल्खा सिंह अपनी पहली दौड़ में छठे नंबर पर आये। इसके बाद मिल्खा सिंह ने ट्रैक एंड फील्ड में जो झंडे गाड़े वो एक इतिहास बन गया। फिर तो मिल्खा सिंह को दौड़ने में पकड़ पाना असंभव सा हो गया था।
मिल्खा सिंह ने पहली बार विश्व स्तर पर अपनी धाक ग्रेट ब्रिटेन के 1958 कार्डिफ़ राष्ट्रमंडल खेलों जमाई, उन्होंने तब तत्कालीन विश्व रिकॉर्ड होल्डर मैल्कम स्पेंस को 440 गज की दौड़ में हराकर स्वर्ण पदक जीता था। इस मौके पर इंग्लैंड की महारानी एलिज़ाबेथ ने मिल्खा सिंह के गले में स्वर्ण पदक पहनाया। उसी समय स्टेडियम के वीआईपी इन्क्लोजर से छोटे-छोटे बालों वाली, साड़ी पहने एक महिला उनकी तरफ़ दौड़कर आई। वह महिला ब्रिटेन में भारत की उच्चायुक्त विजयलक्ष्मी पंडित थीं। विजयलक्ष्मी ने मिल्खा सिंह को मुबारकबाद दी और कहा कि प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संदेश भिजवाया है कि इतनी बड़ी उपलब्धि हासिल करने पर वे इनाम में क्या लेना चाहेंगे? मिल्खा सिंह ने कह दिया कि जीत की इस खुशी में पूरे भारत में छुट्टी कर दी जाए। जिस दिन मिल्खा सिंह भारत पहुँचे, नेहरू ने अपना वादा निभाया और पूरे देश के सभी सरकारी कार्यालयों में एक दिन की छुट्टी घोषित कर दी गई।
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मिल्खा सिंह ने वर्ष 1958 के एशियाई खेलों और वर्ष 1962 के एशियाई खेलों में भी अनेक रिकॉर्ड अपने नाम किये थे।
एक अन्य रोचक मामले में 1960 में मिल्खा सिंह ने भारत-पाक मीट में पाकिस्तान जाकर पाकिस्तान के तत्कालीन सर्वश्रेष्ठ रेसर अब्दुल खालिक को हराया। महत्वपूर्ण बात यह है कि मिल्खा सिंह पाकिस्तान जाने से हिचकिचा रहे थे क्योंकि देश के विभाजन के समय वहाँ उनके माता-पिता की हत्या कर दी गई थी। बताया जाता है कि भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के समझाने पर ही वे पाकिस्तान जाने को राजी हुए थे। अब्दुल खालिक को हराने पर पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल अयूब खान ने मिल्खा सिंह को उड़न सिख का नाम दिया।
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1958 के एशियाई खेलों में मिल्खा सिंह को मिली सफलताओं के सम्मान में, उन्हें भारतीय सिपाही के पद से कनिष्ठ कमीशन अधिकारी पर पदोन्नत कर दिया गया। सेना से सेवानिवृत्ति के बाद वह पंजाब के शिक्षा मंत्रालय में खेल निदेशक बने और वर्ष 1998 में इसी पद से सेवानिवृत्त हुए। मिल्खा सिंह ने जीत में मिले पदक को देश को समर्पित कर दिये थे।
मिल्खा सिंह की उपलब्धियों को देखते हुए 1959 में ही उन्हें पद्मश्री से सम्मानित कर दिया गया था। लेकिन उन्हें अर्जुन पुरस्कार 2001 में जाकर दिया गया। खुद्दार मिल्खा सिंह ने ये पुरस्कार इतनी देरी से मिलने को अपना अपमान समझा और उन्होंने अर्जुन पुरस्कार लेने से मना कर दिया।
फिल्मकार राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने मिल्खा सिंह के जीवन पर भाग मिल्खा भाग नामक फिल्म बनाई। इस फ़िल्म के प्रीमियर पर उन्होंने कहा था कि एक पदक के लिये मैं पूरे कैरियर में तरसता रहा और एक मामूली सी गलती से वह मेरे हाथ से निकल गया। यानी रोम ओलंपिक में 0.1 सेकेंड से चूकने का मलाल उनको ताउम्र रहा।
भारत में कोरोना की आई दूसरी लहर से मिल्खा सिंह भी नहीं बच सके। इसके चलते 17 मई को वे कोरोना पॉजिटिव हो गए। हालांकि कोरोना वायरस से तो वे उबर चुके थे लेकिन पोस्ट कोविड साइडइफेक्ट्स से वह नहीं उबर सके। शुक्रवार 18 जून 2021 की रात 11.30 बजे 91 साल की उम्र में उन्होंने चंडीगढ़ पीजीआई में अंतिम सांस ली। बड़ी दर्दनाक बात यह रही कि उनकी मौत के महज पांच दिन पहले ही उनकी पत्नी निर्मल मिल्खा सिंह का भी पोस्ट कोविड से निधन हो गया था।
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कोविड के कारण हॉस्पिटल में भर्ती होने से पहले मिल्खा सिंह ने आखिरी बातचीत में मीडिया को कहा था कि चिंता मत करो, मैं ठीक हूँ, मैं हैरान हूँ कि कोरोना कैसे हो गया? उम्मीद है कि जल्दी अच्छा हो जाऊंगा।
लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। इस महान धावक को असली श्रद्धांजलि तभी मिलेगी जब कोई भारतीय धावक ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतेगा।
A true Man of Steel who rejected Defeat, his life was a Triumph over extraordinary circumstances. He will always be celebrated for his iron will .
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