आखिर कितना उलटफेर कर पाएंगे ओमप्रकाश चौटाला

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 (चौटाला की जेल से रिहाई पर विशेष लेख)

  • इनेलो और ओमप्रकाश चौटाला का स्वर्णकाल
  • सीटें घट गईं पर वोट प्रतिशत स्थिर रहा
  • मोदी मैजिक, चौटाला को जेल के दौरान इनेलो का प्रदर्शन
  • जेल ने नहीं बल्कि परिवार ने तोड़ डाली इनेलो
  • क्या चौटाला फूँक पाएंगे इनेलो में प्राण
  • किसान आंदोलन का कैसा रहेगा इनेलो पर असर

23 जून 2021 को हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री और इंडियन नेशनल लोकदल के सही मायनों में संस्थापक ओमप्रकाश चौटाला की तिहाड़ जेल में सजा पूरी हो गई और 2 जुलाई 2021 को उन्होंने जेल में जाकर इस बारे में कागजी कार्यवाही पूरी कर दी। इसके साथ ही उनका जेल से पूरी तरह से पिण्ड छूट गया (हालांकि कोविड-19 के संक्रमण के चलते वे काफी समय से जेल से बाहर ही थे)। गौरतलब है कि चौटाला जेबीटी शिक्षकों की भर्ती में अनियमितताओं के जुर्म में 2013 से 10 साल की सजा काट रहे थे।


जेल जाने से पहले पिछले लगभग 25 वर्षों तक हरियाणा की राजनीति में एक धुरी रहे ओमप्रकाश चौटाला अब फिर से राजनीति के मैदान में अपने जोहर दिखाने के लिए पूरी तरह से आजाद हैं। लेकिन अब उनके सामने राजनीतिक चुनौतियां बिल्कुल बदली हुई हैं। चौटाला को अब बीजेपी और कांग्रेस के साथ-साथ अपने उस सगे पौत्र के साथ भी राजनीतिक जंग लड़नी पड़ेगी जिसने उनकी गैरहाजिरी में इनेलो से अलग होकर अपनी खुद की पार्टी खड़ी कर ली और उपमुख्यमंत्री बन गया। जी हाँ, ओमप्रकाश चौटाला के सामने एक नया प्रतिद्वंद्वी उनका खुद का पोता दुष्यंत चौटाला भी है। दादा-पोते की ये भिड़ंत किस तरह होगी और कितनी लम्बी चलेगी यह देखना भी दिलचस्प रहेगा। युवा जोश के ऊपर अनुभव भारी पड़ेगा या युवा बाजी मारेगा इस पर भी सबकी निगाहें टिकी हुई हैं।

पूर्व उपप्रधानमंत्री स्वर्गीय चौधरी देवीलाल के असली राजनीतिक वारिस रहे ओमप्रकाश चौटाला वैसे तो 1989 में ही हरियाणा के मुख्यमंत्री बन गए थे मगर उस समय उनसे काफी सारी राजनीतिक चूकें हो गईं और महम कांड ने भी काफी समय तक उनका पीछा नहीं छोड़ा।

ओमप्रकाश चौटाला ने अपनी प्रतिभा का वास्तविक लोहा 1998 से मनवाना शुरू किया। इस समय तक देवीलाल काफी वृद्ध हो चुके थे। ओमप्रकाश चौटाला ने सबसे पहले, सबसे बड़ा काम यह किया कि उन्होंने देवीलाल के परंपरागत वोटरों को एक कैडर की शक्ल दी। इसके लिए इंडियन नेशनल लोकदल के नाम से एक पार्टी बनाई, स्थाई चुनाव चिन्ह और झंडा अपनाया। जिला और तहसील, लोकसभा और विधानसभा क्षेत्रों के आधार पर पार्टी में नियुक्तियां कीं। चौधरी देवीलाल इस तरह के संगठनात्मक कार्यों के प्रति उदासीन रहते थे और वे हर बार अपने किसी साथी नेता की पार्टी के सिम्बल पर चुनाव लड़ लिया करते थे। इसके चलते उनके समर्थकों को यह नहीं पता होता था कि उनकी पार्टी कौन सी है। इनेलो के गठन का असर यह हुआ कि देवीलाल के सभी अनुयायियों को एक स्थाई पार्टी, स्थाई चुनाव चिन्ह और स्थाई झंडा मिल गया। इसके बड़े सार्थक और दूरगामी परिणाम निकले।  ओमप्रकाश चौटाला ने इस संगठन की मदद से पूरे प्रदेश में अपनी पार्टी की गतिविधियों पर नजर रखना और उसे संचालित करना शुरू कर दिया। इससे पहले पूरे हरियाणा में कांग्रेस या बीजेपी का ही इस तरह का कैडर या संगठन था। थोड़े से समय के लिए बंसीलाल ने भी हरियाणा विकास पार्टी की पार्टी के जरिये इस तरह का कैडर बनाने की कोशिश की थी मगर वे ज्यादा लम्बे समय तक इसमें सफल नहीं हो पाए।

इनेलो और ओमप्रकाश चौटाला का स्वर्णकाल

ओमप्रकाश चौटाला की यह कवायद जल्द ही रंग लाई, इनेलो के गठन के अगले ही साल यानी 1999 में देश में लोकसभा चुनाव हुए। इनेलो ने बीजेपी के साथ समझौता करके चुनाव लड़ा और दोनों ने मिलकर प्रदेश की सभी लोकसभा सीटें जीत लीं। बीजेपी और इनेलो दोनों को 5-5 सीटों पर जीत मिली। इस चुनाव में कांग्रेस 34.93 प्रतिशत वोट लेकर भी अपना खाता नहीं खोल सकी। बीजेपी को 29.21 और इनेलो को 28.72 प्रतिशत वोट मिले। यानी दोनों पार्टियों को संयुक्त रूप से कुल 57.93 प्रतिशत वोट मिले। ये जबरदस्त और रिकॉर्डतोड़ सफलता थी।


इसके अगले ही साल यानी 2000 में हरियाणा में विधानसभा चुनाव हुए। ये चुनाव भी इनेलो और बीजेपी ने मिलकर लड़ा और दोनों को कुल 90 में से 53 सीटें मिलीं और दोनों को संयुक्त रूप से 38.50 प्रतिशत वोट मिल गए। इनेलो के लिए करिश्माई बात यह रही कि उसने समझौते के तहत 90 में से केवल 62 सीटों पर ही चुनाव लड़ा था और 47 सीटें जीत लीं, इसका मतलब यह था कि इनेलो ने अपने दम पर ही पूर्ण बहुमत प्राप्त कर लिया। उसे कुल 29.61 प्रतिशत वोट मिले जबकि उसकी सहयोगी बीजेपी ने 29 जगहों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे इनमें से केवल 6 ही जीत पाने में सफल हो पाए थे।

इस चुनाव को ओमप्रकाश चौटाला का उत्कर्षकाल या स्वर्णकाल माना जा सकता है। मतलब इससे पहले और इसके बाद ओमप्रकाश चौटाला और उनकी पार्टी को ऐसी सफलता नहीं मिली।

एक और बात, बेशक यह चुनाव इनेलो और बीजेपी ने मिलकर लड़ा था मगर उस समय 90 में 11 निर्दलीय विधायक भी जीत गए थे और ये ज्यादातर निर्दलीय विधायक बीजेपी के प्रत्याशियों को हराकर सदन में पहुँचे थे। प्रदेश में चर्चा चली थी कि बेशक दोनों पार्टियों में समझौता रहा हो लेकिन इन निर्दलीयों को जिताना भी एक योजना के तहत हुआ था। यानी समझौते का पूर्ण रूप से पालन नहीं किया गया। हालांकि इस बारे में ओमप्रकाश चौटाला कहते रहे हैं कि ऐसी कोई बात नहीं थी। वैसे तो इन चुनावों से ठीक पहले 1999 में ही ओमप्रकाश चौटाला बीजेपी के समर्थन से मुख्यमंत्री बन चुके थे लेकिन उन्होंने अपना असली राजनीतिक कौशल 2000 के चुनावों और उसके बाद ही दिखाया।

यहाँ एक बात लिखनी मौजूं है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, ओमप्रकाश चौटाला के अच्छे मित्र थे और उनकी पार्टी अल्पमत में थी और इनेलो ने उन्हें समर्थन दे रखा था। फिर भी इनेलो ने उस समय अपने पांच सांसदों में से किसी भी सांसद को केंद्र सरकार में मंत्री नहीं बनवाया। इसका असर यह हुआ कि हरियाणा में सहयोगी रही बीजेपी की प्रदेश इकाई भी अपने किसी विधायक को राज्य सरकार में मंत्री नहीं बनवा पाई। ओमप्रकाश चौटाला इस रणनीति के चलते अपने ऊपर बीजेपी का दबाव हटाने में पूरी तरह कामयाब रहे। बीजेपी की प्रादेशिक इकाई को मजबूरी में सत्ता से बाहर रहकर ओमप्रकाश चौटाला का साथ देना पड़ा। इस पूरी योजना में ओमप्रकाश चौटाला ने अपने तरीके से हरियाणा पर राज किया। हालांकि उनके राज करने को लेकर विभिन्न मत हो सकते हैं लेकिन उनके विरोधी भी मानते हैं कि उन्होंने राजनीतिक भगोड़ों को टिकट न देकर उन्हें उचित सबक सिखाया और राज्य की  अफसरशाही को पूरी तरह काबू में रखा।

सीटें घट गईं पर वोट प्रतिशत स्थिर रहा

अगला विधानसभा चुनाव आया 2005 में तब तक चौटाला और बीजेपी नेताओं के बीच तल्खियां इतनी बढ़ चुकी थीं कि दोनों ने अकेले चुनाव लड़ा और दोनों को मुँह की खानी पड़ी। इन चुनावों में इनेलो के केवल 9 विधायक ही जीत पाए लेकिन पार्टी का वोट प्रतिशत 26.77 रहा। यह 2000 के चुनावों के मुकाबले में केवल 2.84 प्रतिशत ही कम रहा लेकिन इनेलो को 38 सीटों का नुकसान हो गया!

फिर आया 2009 का विधानसभा चुनाव इसमें सभी को चौंकाते हुए इनेलो के 31 विधायक जीत गए। हैरानी की बात यह रही कि इस बार इनेलो को सिर्फ 25.79 प्रतिशत ही वोट मिले जो कि 2005 के मुकाबले 0.98 कम थे मगर उनके 22 विधायक ज्यादा जीत गए। इस बार इनेलो के वोटरों ने बेहद सूझबूझ से वोटिंग की और कांग्रेस को धरातल पर ला दिया। क्योंकि भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने निर्धारित अवधि से पहले ही यह समझकर चुनाव करवा लिए कि हवा कांग्रेस के अनुकूल है। कांग्रेस को महज 40 सीटें ही मिल सकीं। 

मोदी मैजिक, चौटाला को जेल के दौरान इनेलो का प्रदर्शन

2009 के प्रदर्शन को देखकर लग रहा था कि 2014 के विधानसभा चुनावों में ओमप्रकाश चौटाला ही प्रदेश में सरकार बना ही लेंगे। लेकिन 22 जनवरी 2013 को ओमप्रकाश चौटाला और उनके बड़े पुत्र अजय सिंह चौटाला को 10-10 साल की जेल की सजा सुना दी गई। बाकी पार्टियां और लगभग सभी राजनीतिक विश्लेषक यह मान कर चल रहे थे कि इस जबरदस्त झटके से इनेलो टूट जायेगी लेकिन कमाल की बात यह रही कि सुप्रीमो के जेल जाने के बावजूद इनेलो के नेता और समर्थक चट्टान की तरह जमे रहे।


मगर 2013 से देश की राजनीति में नरेन्द्र मोदी का उदय हो रहा था और मई 2014 के लोकसभा चुनावों में पूरे देश में मोदी मैजिक छा गया। हालांकि इस मोदी मैजिक में भी इनेलो के 2 सांसद जीत गए।

जब इसी साल अक्टूबर में हरियाणा में विधानसभा चुनाव हुए तो इस मोदी मैजिक से हरियाणा भी अछूता नहीं रहा। इन चुनावों में इनेलो को 24.11 प्रतिशत वोट मिले जो कि पिछले चुनावों से मात्र 1.68 प्रतिशत ही कम थे। इसका मतलब ओमप्रकाश चौटाला के जेल जाने का प्रभाव इनेलो के वोटरों पर नहीं पड़ा। लेकिन उसके केवल 19 विधायक ही जीत सके। बीजेपी ने पहली बार 33.20 प्रतिशत वोट लेकर 47 विधायकों के साथ स्पष्ट बहुमत से सरकार बनाई। इनेलो के लिए संतोषजनक बात यह रही कि 19 विधायकों के साथ वह सदन में दूसरे नम्बर पर रही और उसकी चिर प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस के केवल 15 विधायक ही जीत सके।

इन चुनावों से स्पष्ट हो गया कि जेल में जाने के बाद भी ओमप्रकाश चौटाला और इनेलो का रुतबा कायम था। अपने गठन के बाद से इनेलो हर चुनाव में 25 प्रतिशत के आसपास वोट ले रही थी बेशक उसके विधायकों की संख्या कम-ज्यादा हो जाये पर वोट प्रतिशत लगातार कायम रहा। प्रतिशत के आधार पर कहा जा सकता है कि हर चुनाव में चौथा वोटर इनेलो का ही होता था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि इनेलो के गठन के बाद हरियाणा में सत्ता संघर्ष इनेलो और कांग्रेस के मध्य रहता आया था लेकिन 2014 में यह मामला त्रिकोणीय हो गया। अब बीजेपी नामक तीसरा खिलाड़ी भी पूरी ताकत से अखाड़े में कूद पड़ा था, इन चुनावों में बीजेपी को 33.20 प्रतिशत वोट मिली थीं मतलब हर तीसरे वोटर ने बीजेपी को वोट दिया था। इस चुनाव ने कांग्रेस के साथ-साथ ओमप्रकाश चौटाला और इनेलो की भी नींद उड़ा दी।

जेल ने नहीं बल्कि परिवार ने तोड़ डाली इनेलो

अब जनता की निगाहें 2019 के विधानसभा चुनावों पर थीं कि इनेलो इनमें कैसा प्रदर्शन कर पायेगी। ये चुनाव हों इससे पहले ही 8 दिसंबर 2018 को इनेलो में एक जबरदस्त धमाका हो गया। ओमप्रकाश चौटाला के बड़े बेटे अजय सिंह चौटाला के पुत्र दुष्यंत चौटाला ने एक अलग पार्टी जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) का गठन कर लिया। इस धमाके का असर यह हुआ कि ओमप्रकाश चौटाला की अनुपस्थिति में इनेलो के नेताओं में ऊहापोह की स्थिति हो गई। अतः उनमें से कुछ तो जेजेपी में, कुछ बीजेपी में और कुछ कांग्रेस में चले गए। अब इनेलो बिल्कुल टूट चुकी थी क्योंकि सभी नेता पार्टी से किनारा कर चुके थे। ऐसे में  इनेलोमतदाताओं में भी भ्रम की स्थिति पैदा हो गई कि वो कहाँ जाएं।

2019 में हरियाणा में विधानसभा चुनाव हुए। इनेलो को मात्र 2.45 प्रतिशत वोट मिले और ओमप्रकाश चौटाला के छोटे पुत्र जो कि इनेलो की कमान संभाल रहे थे वे ही पार्टी के एकमात्र विधायक बन पाए। उधर जेजेपी 14.80 प्रतिशत वोट लेकर 10 विधायक बनाने में सफल रही। 

देखा जाए तो इन चुनावों में इनेलो और जेजेपी को कुल मिलाकर 17.25 प्रतिशत वोट ही मिले। अगर इनेलो के परंपरागत वोटरों को 25 प्रतिशत मान लिया जाए तो स्पष्ट था कि 7.75 प्रतिशत वोटर इनेलो और जेजेपी से दूर हो चुके थे। 

आखिर ये 7.75 प्रतिशत वोटर गए कहाँ ?

यही वो आकंड़ा और रहस्य है जिस पर ओमप्रकाश चौटाला, दुष्यंत चौटाला और कांग्रेस का भविष्य निर्भर करेगा। 

चौधरी देवीलाल ने हमेशा किसानों की राजनीति की थी वे अक्सर चौधरी चरणसिंह के 'अजगर' फार्मूले की बात करते थे यानी अ से अहीर, ज से जाट, ग से गुज्जर और र से राजपूत समुदायों को इकट्ठा करने पर जोर देते थे। हालांकि चौधरी देवीलाल अजगर में जाट और गुज्जर समुदायों को अपने साथ जोड़ने में काफी हद तक कामयाब रहे जबकि ज्यादातर अहीर और राजपूत उनके साथ नहीं आ पाये। लेकिन देवीलाल इसकी कमी सैनी समुदाय को अपने साथ लेकर पूरी कर लेते थे। 

ओमप्रकाश चौटाला ने जब विधिवत रूप से इनेलो का गठन किया तो प्रदेश का ज्यादातर जाट, गुज्जर और सैनी समुदाय उनके साथ आ गया। लेकिन फिर भी ओमप्रकाश चौटाला को स्पष्ट बहुमत प्राप्त करने के लिए साथी दल की जरूरत बनी रही। क्योंकि 25 प्रतिशत वोट शेयर के साथ सत्ता में आना मुश्किल काम है अगर यह आंकड़ा 30 प्रतिशत हो तो सत्ता प्राप्ति में कम्फर्टेबल हुआ जा सकता है।

2016 में हुए जाट आरक्षण आंदोलन ने इनेलो का सैनी और गुज्जर वोट बैंक खिसक गया। इसकी वजह ओमप्रकाश चौटाला की गैरहाजिरी में अभय सिंह चौटाला द्वारा जाट आरक्षण आंदोलन का सार्वजनिक रूप से समर्थन करना और यशपाल मलिक के साथ स्टेज शेयर करना रही। अतः अब इनेलो के ज्यादातर समर्थक जाट ही रह गए। 

2019 में जब विधानसभा चुनाव हुए तो प्रदेश के ज्यादातर जाट बीजेपी से खफा थे। प्रदेश में जाटों की आबादी 28 प्रतिशत है। जाटों ने मन बना लिया था कि उनका लक्ष्य किसी पार्टी को जिताना नहीं बल्कि बीजेपी को हराना है। अतः उनको जिस विधानसभा में जो भी कैंडिडेट बीजेपी को हराने में सक्षम दिखाई दिया उसे ही वोट दे दिया। इसके तीन बड़े परिणाम हुए बीजेपी जो 75 पार का नारा दे रही थी वह 40 सीटों तक ही सिमट गई दूसरी तरफ इनेलो के परंपरागत वोटरों ने मन-मारकर उस कांग्रेस को वोट देना पड़ा जिसको वो अपना कट्टर विरोधी मानते आये थे। इसके चलते इनेलो पहली बार चारों खाने चित्त हो गई और कांग्रेस को बिना कुछ ज्यादा मेहनत करने पर भी अनायास 32 सीटें मिल गईं। उधर जेजेपी नेता भी इन चुनावों में बीजेपी को सबक सिखाने की बातें कर रहे थे, इस बात पर विश्वास करके वोटरों ने जेजेपी के भी 10 विधायक जितवा दिए। 

यानी इन चुनावों में इनेलो के परंपरागत वोटरों ने अपनी पार्टी की परवाह न करके दिल पर पत्थर रखकर धुर विरोधी कांग्रेस को भी वोट डाल दिए। मकसद था किसी भी तरह बीजेपी को हराना।

क्या चौटाला फूँक पाएंगे इनेलो में प्राण?

अब चूँकि इनेलो सुप्रीमो जेल से छूटकर वापस आ चुके हैं। हालांकि कानूनन वे आगामी 6 साल तक चुनाव नहीं लड़ सकते लेकिन उनके सामने इनेलो को पुनर्जीवित करने की बड़ी भारी चुनौती है। उनके लिए राहत की बात यह है कि जिन वोटरों ने बीजेपी के विरोध में जेजेपी को वोट दिया था वे वोटर जेजेपी द्वारा बीजेपी को समर्थन देने से अपने आपको ठगा हुआ सा महसूस कर रहे हैं। इन वोटरों को अपने खेमे में लाना अपेक्षाकृत आसान है। लेकिन जो वोटर कांग्रेस से जुड़ गए हैं उन्हें वापस लाना बड़ा मुश्किल है।


अगर ओमप्रकाश चौटाला को इनेलो का गौरवशाली अतीत वापस लाना है तो उन्हें सबसे पहले यह विश्वास दिलाना होगा कि इनेलो अपने दम पर फिर से सरकार बना सकती है। लेकिन सबसे बड़ी चुनौती यह है कि चाहे बेशक इस समय उनके रिश्ते बीजेपी के साथ ठीक नहीं हैं फिर भी उन्होंने समय-समय पर बीजेपी के साथ गठबंधन किया है। उनके पौत्र दुष्यंत चौटाला भी 2019 के विधानसभा चुनावों की कैम्पेनिंग के दौरान बीजेपी को किसी भी तरह के सर्मथन देने से इंकार करते रहे मगर चुनाव परिणाम आते ही उन्होंने बीजेपी को समर्थन दे दिया। इसे चौटाला परिवार की वादाखिलाफी माना गया। अब ओमप्रकाश चौटाला को दिखाना और विश्वास दिलाना होगा कि अगर उनकी पार्टी को ठीक-ठाक वोट मिल गए तो वे बीजेपी के पाले में नहीं जाएंगे। अगर जाट समुदाय के वोटरों ने आगामी चुनावों में फिर से टैक्टिकल वोटिंग करने का मन बनाए रखा तो भी इनेलो की मुश्किलें ज्यों की त्यों बनी रहेंगी। ओमप्रकाश चौटाला अगर 2024 तक पार्टी को इतना मजबूत कर दें कि गैर बीजेपी वोटरों को लगे कि इनेलो ही बीजेपी और कांग्रेस दोनों को पटखनी दे सकती है तो ही पार्टी का पुराना वैभव वापस आ सकता है।

इसके अलावा ओमप्रकाश चौटाला की खासियत यह भी रही है कि जो नेता उनकी पार्टी को छोड़ गया उसको उन्होंने कभी मनाया नहीं बल्कि उसे काली भेड़ की संज्ञा देकर उसका सरेआम तिरस्कार किया। इस समय जब उनकी उम्र भी 86 बरस की हो चुकी है और ज्यादातर नेता उनका साथ छोड़ गए हैं तो क्या वे अपनी ये हेकड़ी छोड़ देंगे ये देखना भी दिलचस्प रहेगा। 

इसके साथ ही उनके राजनीतिक वारिस व छोटे पुत्र अभय सिंह चौटाला का मुँहफट स्वभाव भी पार्टी के लोगों के साथ संवाद में बाधा रहा है। इसके कारण ही ज्यादातर नेता जेजेपी में चले गए हालांकि उन्होंने इसमें काफी बदलाव किया है और वे लोगों से आजकल काफी मिलजुल भी रहे हैं। लेकिन पुरानी छवि को तोड़ने और नई छवि बनाने में काफी समय लगता है।

किसान आंदोलन का कैसा रहेगा इनेलो पर असर

इनेलो, ओमप्रकाश चौटाला और अभय सिंह चौटाला के लिए सबसे बड़ी संजीवनी हाल ही चल रहा किसान आंदोलन साबित हो सकता है। क्योंकि पूरे देश में अभी तक अभय सिंह चौटाला ही एकमात्र ऐसे विधायक हैं जिन्होंने इसके समर्थन में विधानसभा से इस्तीफा दिया है। लेकिन हरियाणा में किसान आंदोलन के अगुवा गुरनाम सिंह चढूनी के साथ ओमप्रकाश चौटाला और अभय सिंह के रिश्ते बहुत अच्छे नहीं कहे जा सकते। चर्चाएं यही हैं कि ओमप्रकाश चौटाला दिल्ली के दोनों बॉर्डरों टीकरी और सिंघु पर अपना पूरा ध्यान केंद्रित करने जा रहे हैं। चर्चाएं हैं कि चढूनी का झुकाव चौटाला की बजाए हुड्डा की तरफ ज्यादा है। लेकिन इस आंदोलन के दौरान चढूनी अपने आपको गैर राजनीतिक दिखाने का प्रयास कर रहे हैं। जब अभय सिंह चौटाला ने विधायक पद से इस्तीफा दिया था तो उस समय महम चौबीसी के ऐतिहासिक चबूतरे पर उनके अभिनन्दन समारोह में गुरनाम सिंह चढूनी ने जाने से इंकार कर दिया था।

       

देखना दिलचस्प रहेगा कि किसान आंदोलन और अपनी संगठन क्षमता का उपयोग करके ओमप्रकाश चौटाला इनेलो और अपना पुराना वैभव वापस लाने में कितने कामयाब रहेंगे। एक सच से मुँह नहीं मोड़ा नहीं जा सकता कि ओमप्रकाश चौटाला की अब उम्र हो चली है अतः हो सकता है कि शायद इनेलो उस तेवर या कलेवर में ना आ पाये। लेकिन उनकी उपस्थिति मात्र ही इनेलो के लिए जादू की झड़ी का काम करेगी।

ओमप्रकाश चौटाला जीवटता के इतने धनी हैं कि वे बड़ी से बड़ी हार पर कहते रहे हैं कि इनेलो के सैनिक कभी बैरकों में आराम करने नहीं जाते!

अब फिर से पूरे प्रदेश की निगाहें हाल ही में आजाद हुए इस वृद्ध सेनापति पर हैं।


(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, राजनीतिक विश्लेषक, लेखक, समीक्षक और ब्लॉगर हैं)

अमित नेहरा  
सम्पर्क : 9810995272
amitnehra007@gmail.com
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