बेगुनाह सांसों को तोड़ते ये पुल
'तू किसी रेल सी गुज़रती है
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ'
Chankaya Mantra January 2023 Edition |
हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि दुष्यंत कुमार ने 1975 में प्रकाशित अपने काव्य संग्रह 'साये में धूप' के तहत 'मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ' नामक ग़ज़ल में ये लाइनें लिखी थीं।
पता नहीं दुष्यंत कुमार ने किन हालातों और परिपेक्ष्य में ये दो लाइनें लिखी हों। लेकिन यह शत-प्रतिशत सत्य है कि भारतीय रेलमार्गों पर रेल (ट्रेन) के गुजरने के दौरान ज्यादातर पुल, वाकई खतरनाक तरीके से थरथराते हैं। कुछ तो ट्रेन के गुजरते हुए टूट भी चुके हैं। इन हादसों में हजारों लोग अपनी जान गवां चुके हैं। वर्ष 2019 में संसद में पेश आंकड़ों के अनुसार भारतीय रेलमार्गों पर लगभग 1,20,000 पुल हैं, जिसमें 38,850 से अधिक पुल 100 साल से भी ज्यादा पुराने हैं, जो अपना जीवन पूरा कर चुके हैं। कायदे से इनको ढहा कर इनकी जगह नए पुल बना देने चाहियें थे। मगर यह इस देश में ही सम्भव है कि मियाद पूरी कर चुके पुलों पर भी भारतीय ट्रेनें मुसाफिरों की जान की परवाह के बगैर मजे से दौड़ रही हैं। ऐसे में पुल तो थरथरा रहे हैं, लेकिन रेलवे और केंद्र सरकार जिसके तहत रेलवे मंत्रालय है, दोनों को मुसाफिरों की जान की तनिक भी परवाह नहीं है। इस रिपोर्ट में देश के रेलवे व सामान्य पुलों की स्थिति और दुर्घटनाओं पर चर्चा होगी। लेख का मकसद रेलवे यात्रियों को भयभीत करना नहीं है बल्कि यह दिखाना है कि सरकारें अपने नागरिकों की जान के प्रति किस हद तक लापरवाह हो सकती हैं!
ये तो थी भारतीय रेलवे के जर्जर पुलों की बात। अगर, देश में सभी तरह के पुलों की बात की जाए तो आंकड़ों के अनुसार 1977 से लेकर 2017 तक के चार दशकों में पूरे भारत में 2,130 पुल ढह चुके हैं। इनमें हजारों लोग अपनी जान गवां चुके हैं।
हाल ही में, 30 अक्टूबर 2022 को छठ पूजा का लोकपर्व डूबते सूरज को अर्घ्य देकर समापन की ओर बढ़ रहा था कि उसी समय शाम करीब 6:30 बजे गुजरात में मच्छू नदी के किनारे स्थित मोरबी जिला मुख्यालय में एक भयानक दर्दनाक हादसा हो गया। मच्छू नदी पर
1879 में बना 143 साल पुराना केबल सस्पेंशन ब्रिज टूट गया। पुल टूटने से उस पर मौजूद करीब 400 लोग मच्छू नदी में जा गिरे। मोरबी जिला प्रशासन के अनुसार केबल पुल के गिरने से कम से कम 135 लोगों की मौत हो गई और 100 से अधिक घायल हुए हैं। ब्रिटिश काल में बने इस 233 मीटर लंबे और 1.25 मीटर चौड़े ब्रिज को झूला पुल भी कहा जाता है। इस ब्रिज को सात महीने के रिनोवेशन के बाद हादसे से पांच दिन पहले ही दोबारा खोला गया था। प्रशासन पर आरोप है कि ब्रिज को फिटनेस सर्टिफिकेट नहीं दिया गया था। ब्रिज पर क्षमता से अधिक लोगों के पहुंचने को पुल टूटने की वजह बताया जा रहा है। कहा जा रहा है कि टिकट से कमाई के चलते क्षमता से अधिक लोगों को ब्रिज पर जाने दिया गया। एक निजी फर्म को ब्रिज की मरम्मत का काम सौंपा गया था। लेकिन नगर निगम की ओर से ब्रिज को फिटनेस सर्टिफिकेट नहीं दिया गया था।
मोरबी केबल पुल, मरम्मत कार्य व रखरखाव में कमी, कुप्रबंधन, भ्रष्टाचार या अन्य किस कारण से ढहा है, यह तो जांच का विषय है, मगर इस पहले भी भारत में पुल टूटने के अनेक हादसे हो चुके हैं।
केवल 21वीं शताब्दी की ही बात करें तो भारत में पिछले दो दशकों में पुल टूटने के ये प्रमुख हादसे हुए हैं।
- 22 जून 2001 को मंगलौर-चेन्नई मेल ट्रेन केरल के कोझीकोड जिले के कदलुंडी रेलवे स्टेशन के पास नदी पर बने एक पुल के पिलर टूटने से बेपटरी हो गई थी। इस ट्रेन के चार डिब्बे नदी में डूब गए थे। इस हादसे में 59 लोगों की मौत हो गई थी और 300 से अधिक लोग घायल हुए थे।
- 10 सितंबर 2002 को बिहार के रफीगंज रेल पुल पर कोलकाता से नई दिल्ली जाने वाली राजधानी एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हो गई थी, जिसमें 130 लोगों की मौत हो गई थी।
- 28 अगस्त 2003 को दमन के पश्चिमी तटीय क्षेत्र में एक पुल नदी में गिर गया था, जिससे एक स्कूल बस और कई अन्य वाहन पानी में बह गए थे। इस हादसे में 25 लोगों की दुखद मौत हो गई थी।
- 29 अक्टूबर 2005 को तेलंगाना के वेलिगोंडा रेलवे ब्रिज अचानक आई बाढ़ के कारण ढहने से उस पर पहुंची पूरी ट्रेन पानी में चली गई थी, जिसमें 114 लोग मारे गए थे। पुल का एक हिस्सा बह जाने से यह हादसा हुआ था। यह हादसा हैदराबाद के निकट हुआ था।
- 2 दिसंबर 2006 को बिहार के भागलपुर रेलवे स्टेशन पर एक 150 साल पुराना पुल टूट गया, जिसमें 33 लोगों की मौत हो गई थी। हावड़ा-जमालपुर सुपरफास्ट ट्रेन के पुल से गुजरने के समय यह हादसा हुआ था।
- 9 सितंबर 2007 को हैदराबाद के पंजागुट्टा में निर्माण के दौरान फ्लाईओवर पुल गिर गया था, जिसमें 20 लोगों की मौत हो गई थी।
- 24 दिसंबर 2009 को राजस्थान के कोटा जिले में एक निर्माणाधीन पुल के ढहने से मलबे में फंसे 37 मजदूरों की मौत हो गई थी।
- 22 अक्टूबर 2011 को असम के दार्जिलिंग में एक राजनीतिक कार्यक्रम के दौरान पुल ढह गया था, जिसमें 32 लोगों की मौत हो गई थी।
- 10 जून 2014 को गुजरात के सूरत में पंडित दीनदयाल उपाध्याय केबल ब्रिज का 35 मीटर लंबा और 650 टन वजनी स्लैब 40 फुट की ऊंचाई से ढह गया था, जिसमें से 10 लोगों की मौत हो गई थी और 6 लोग घायल हो गए थे।
- 31 मार्च 2016 को कोलकाता में निर्माणाधीन विवेकानंद फ्लाईओवर का लगभग 100 मीटर का हिस्सा गिरने से 27 लोगों की मौत हो गई थी।
- 2 अगस्त 2016 को महाराष्ट्र में सावित्री रिवर ब्रिज हादसे में 28 लोग मारे गए थे। महाड़ के पास सावित्री नदी पर बना ये 106 साल पुराना पुल ढह गया था।
- 18 मई 2017 को गोवा के कुरचोरेम में सैनवोर्डेम नदी पर पुर्तगाली युग के एक जर्जर पुल के ढह जाने से दो लोगों की मौत हो गई थी और अनेक लापता हो गए थे।
- 29 सितंबर 2017 को मुंबई में एलफिंस्टन रोड रेलवे स्टेशन के पुल पर भगदड़ मचने से 23 लोगों की मौत हो गई थी और 39 लोग घायल हो गए थे।
- 15 मई 2018 को वाराणसी कैंट रेलवे स्टेशन के पास निर्माणाधीन पुल का एक हिस्सा गिरने से 19 लोगों की मौत हो गई थी। जबकि 20 से अधिक लोग घायल हो गए थे।
- 4 सितंबर 2018 को कोलकाता में मजेरहाट पुल टूट गया इस हादसे में तीन लोगों की मौत हो गई थी और 25 लोग घायल हो गए।
- 14 मार्च 2019 को मुंबई में छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस रेलवे स्टेशन के उत्तरी छोर को बदरुद्दीन तैयबजी लेन से जोड़ने वाले फुटओवर ब्रिज का एक हिस्सा टूटकर सड़क पर गिर गया था। इस हादसे में छह लोगों की मौत हो गई थी और 30 अन्य घायल हुए थे।
ये तो कुछ हादसे थे जिनमें पुराने या निर्माणाधीन पुलों के टूटने के कारण अनेक बेगुनाह लोग बेमौत मारे गए।
राज्यसभा में 13 दिसंबर 2019 को रेलवे के जर्जर पुलों की हालत पर एक प्रश्न उठाया गया था जिसके जवाब में तत्कालीन रेल मंत्री पीयूष गोयल ने बताया था कि भारतीय रेल नेटवर्क में 38,850 रेल पुल ऐसे हैं जो 100 वर्ष से अधिक पुराने हैं। पीयूष गोयल द्वारा जारी किए गए जोन वाइज डाटा के अनुसार सभी जोनों में जर्जर पुलों की संख्या इस तरह है। मध्य रेलवे - 4346, पूर्व रेलवे - 2913, पूर्व मध्य रेलवे - 4754, पूर्व तट रेलवे - 924, उत्तर रेलवे - 8767, उत्तर मध्य रेलवे - 2281, पूर्वोत्तर रेलवे - 509, पूर्वोत्तर सीमा रेलवे - 219, उत्तर पश्चिम रेलवे - 985, दक्षिण रेलवे - 2493, दक्षिण मध्य रेलवे - 3040, दक्षिण पूर्व रेलवे - 1797, दक्षिण पूर्व मध्य रेलवे - 875, दक्षिण पश्चिम रेलवे - 189, पश्चिम रेलवे - 2866 और पश्चिम मध्य रेलवे में 1892 पुल जर्जर थे। यह वह लिस्ट है जो 2019 में रेलवे मंत्रालय द्वारा जारी की गई थी।
ज्यादातर जर्जर पुलों पर गति पर कोई प्रतिबंध ही नहीं
वर्ष 2017 की एक रिपोर्ट के अनुसार रेलवे बोर्ड ने देश के सभी रेल पुलों की समीक्षा करने का निर्देश दिया था, क्योंकि यह पाया गया था कि ऐसे 275 जर्जर पुलों में से केवल 23 पर ही गति प्रतिबंध है। इससे पहले बोर्ड ने इन पुलों की स्थिति का ब्योरा मांगा था और पाया था कि इन 252 जर्जर पुलों पर ट्रेनें अपनी सामान्य गति से गुजरेंगी जो निश्चित रूप से खतरनाक है।
बोर्ड के आदेश के अनुसार, सीबीई (मुख्य पुल अभियंताओं) को विशेष रूप से सभी पुलों के संबंध में स्थिति की समीक्षा करनी चाहिए और प्राथमिकता पर उनको ठीक करने के लिए कार्य योजना तैयार करनी चाहिए।
भारतीय रेलवे के पास अपने पुलों के लिए तीन रेटिंग हैं- ओवरऑल रेटिंग नम्बर (ओआरएन) 1, 2 व 3 इनमें ओआरएन 1 वाले पुलों को तत्काल निर्माण या ठीक करने की आवश्यकता है, ओआरएन 2 वाले पुलों को प्रोग्राम के आधार पर पुनर्निर्माण की आवश्यकता है और ओआरएन 3 वाले पुलों को विशेष मरम्मत की आवश्यकता है।
रेलवे बोर्ड के सितंबर 2017 के आदेश में कहा गया था कि ऐसा लगता है कि इन पुलों के पुनर्वास के लिए रेलवे द्वारा उचित समयबद्ध योजना नहीं बनाई गई है, जिससे संदेह पैदा होता है कि पुल की वास्तविक स्थिति के लिए उपयुक्त सही स्थिति रेटिंग दी गई है या नहीं!
रेलवे बोर्ड का कहना था कि, कुछ जोनल रेलवे पर लंबे समय से बड़ी संख्या में पुलों के पुनर्निर्माण की आवश्यकता है। मध्य रेलवे में 61, पूर्व मध्य रेलवे में 63, दक्षिण मध्य रेलवे में 41 और पश्चिम रेलवे में 42 ऐसे पुल हैं जिन्हें तत्काल पुनर्निर्माण की आवश्यकता है।
सबसे गम्भीर बात यह है कि इस रिपोर्ट में बोर्ड ने यह भी कहा कि ज्यादातर मामलों में, कोई गति प्रतिबंध नहीं लगाया गया है और मुख्य पुल इंजीनियरों द्वारा कोई विशेष निरीक्षण कार्यक्रम निर्धारित नहीं किया गया है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि 275 जर्जर पुलों में से केवल 23 पर ही गति प्रतिबंध है तो देश में मौजूद 38000 से भी ज्यादा जर्जर पुलों में से कितने पुलों पर गति पर प्रतिबंध मिलेगा। हालांकि रेलवे बोर्ड ने इन सभी का डेटा नहीं दिया है मगर हम अनुमान तो लगा ही सकते हैं।
रेलवे के जर्जर पुलों को ठीक करने की व्यवस्था
वर्ष 2019 में राज्यसभा में तत्कालीन रेलवे मंत्री पीयूष गोयल ने बताया था कि भारतीय रेलवे में सभी पुलों को वर्ष में दो बार उनके लिए चिन्हित अधिकारियों के जरिए निरीक्षण किया जाता है। निरीक्षण अलग-अलग मौसम में किया जाता है। पहला निरीक्षण मॉनसून से पहले किया जाता है और दूसरा मॉनसून खत्म होने के बाद विस्तृत रूप से किया जाता है। निरीक्षण के बाद प्रत्येक पुल को एक ओवरऑल रेटिंग नंबर ओआरएन दिया जाता है और पुल के ओआरएन के आधार पर उसका पुनर्निर्माण किया जाता है। पीयूष गोयल ने यह भी बताया था कि पिछले 5 वर्षों (2014-15 से 2018-19) के दौरान भारतीय रेल पर कुल 4032 पुलों और 2019 से 2020 के दौरान नवंबर 2019 तक केवल 861 पुलों की मरम्मत/पुनर्स्थापना/पुनर्निर्माण किया गया। गोयल के अनुसार 1 अप्रैल 2019 तक की स्थिति के अनुसार कुल 4168 रेल पुलों को मरम्मत/ पुनर्स्थापना/ पुनर्निर्माण के लिए स्वीकृत किया गया।
स्पष्ट है कि रेलवे के पास तुरंत सभी जर्जर पुलों को ठीक करने या उनकी जगह नए पुल बनाने की योजना नहीं है। स्थिति ऐसी है कि रेलवे इन सभी जर्जर पुलों की स्थिति कोई खास सुधर नहीं पाई है। इन हजारों जर्जर पुलों के ऊपर से रोजाना हजारों ट्रेनें गुजरती हैं जिनमें लाखों यात्री सवार होते हैं, इन सभी यात्रियों की जान को खतरा है। कब कौन सा पुल ट्रेन के गुजरने के दौरान ध्वस्त हो जाये, ये अंदेशा हमेशा बना रहता है।
उत्तराखंड में 5 साल में 37 पुल ढहे, 27 ढहने को
पुल केवल रेलवे के ही ढह रहे हों, ऐसा भी नहीं है। देश के विभिन्न हिस्सों में हर तरह के पुल लगातार ढह रहे हैं। उत्तराखंड को ही ले लीजिए।
हाल ही में उत्तराखंड की पीडब्ल्यूडी ने प्रत्येक जिले की विस्तृत मैपिंग करके अनुमान लगाया है कि पिछले पांच वर्षों में राज्य में 37 प्रमुख पुल ढह गए हैं जबकि अन्य 27 पुल ढहने के कगार पर हैं। इनमें पिथौरागढ़ जिले में सर्वाधिक 15 पुल ढहे हैं, जबकि राजधानी देहरादून ने केवल 2021 में ही तीन महत्वपूर्ण पुलों को खो दिया है। केदारनाथ जिले में जून 2021 में गुलाबराय बाईपास के पास एक महत्वपूर्ण पुल बह गया। केदारनाथ को राज्य से जोड़ने वाले दो अन्य प्रमुख पुलों की हालत भी गंभीर है।
टिहरी बांध के पार डोबरा-चांटी पुल भारत का सबसे लंबा निलंबन पुल है, लेकिन इसके पूरा होने के नौ महीने के भीतर ही इसमें दरारें पड़ गईं। इस पुल का उद्घाटन 2020 के अंत में किया गया था। बांध के पार रहने वाले हजारों निवासियों की नाराजगी के कारण फिलहाल इस सड़क पर सारा यातायात बंद कर दिया गया है।
उधर, पिथौरागढ़ के मुनस्यारी क्षेत्र में वास्तविक नियंत्रण रेखा से 65 किमी दूर स्थित एक बेली पुल 10 जनवरी, 2022 को एक ओवरलोड ट्रेलर द्वारा पार करने की कोशिश करने पर टूटकर नाले में गिर गया। पुल के गिरने के बाद एलएसी पर लीलम घाटी के करीब स्थित इलाका पूरी तरह से कट गया।
रानी पोखरी गांव में स्थित गंगा की एक सहायक नदी झकन नदी पर बना प्रमुख देहरादून-ऋषिकेश पुल भी टूट चुका है। यह महत्वपूर्ण पुल उत्तराखंड के प्रमुख स्थलों के साथ जॉली ग्रांट हवाई अड्डे को जोड़ता था और हजारों यात्री इससे गुजरते थे। मजेदार बात यह है कि पीडब्ल्यूडी इंजीनियरों ने एक दशक पहले इस पुल के उद्घाटन के समय दावा किया था कि यह पुल 100 से अधिक वर्षों तक चलेगा। लेकिन, अफसोस की बात है कि 27 अगस्त, 2020 को नीचे आ गिरा।
उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य में एक पुल के ढहने का मतलब है आस-पास के क्षेत्र में रहने वाले सैकड़ों गांवों के लिए एक महत्वपूर्ण संचार लाइन का टूट जाना। वहाँ रह रहे हजारों निवासियों को इससे कितनी कठिनाई होती है, इसका केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है!
उत्तराखंड में पुल इतने ज्यादा क्यों टूट रहे हैं उसका जवाब है कि यहाँ बह रही नदियों में रेत खनन में तेजी से हो रही वृद्धि से पुल टूट रहे हैं। रेत का अवैध तरीके से खनन, पुलों की नींव को उजागर कर देता है, जिससे वे नष्ट हो जाते हैं।
अवैध बालू खनन से इन पुलों के खंभे खुल जाते हैं और वे अधिक असुरक्षित हो जाते हैं। पानी के बहुत अधिक गति से बहने के कारण, इसने ऐसी स्थिति पैदा हो गई है, जहां कई पुल ढह गए हैं। देखा जाए तो रेत एक झरझरा पदार्थ है जो पानी को अवशोषित करता है इससे पानी के प्रवाह को कम करने में मदद मिलती है। मगर जब नदी के तल से रेत हटा दी जाती है, तो नदी अधिक गति और अधिक मात्रा में बहती है। यह पुल की संरचना पर दबाव बढ़ाता है और उन्हें तोड़ डालता है। हालांकि रेत के अवैध खनन के खिलाफ नैनीताल हाईकोर्ट में 30 से भी ज्यादा जनहित याचिकाएं दायर की गई हैं। अदालत ने समस्या का संज्ञान लिया है, लेकिन हकीकत में बहुत कम बदलाव आया है।
उत्तराखंड में अनेक स्थानों पर नदियों पर अतिक्रमण होने से नदियां संकरी हो गई हैं जिसके कारण उनमें पानी के बहाव की मात्रा बहुत तेज हो गई है, इस तीव्र पानी के वेग के कारण भी अनेक जगह पुल ढह रहे हैं।
यह भी काबिलेगौर है कि प्रत्येक पुल के पुनर्निर्माण की लागत सैकड़ों करोड़ रुपये है।ऐसा करने से पहले, उन्हें सभी सुरक्षा मानदंडों का पालन सुनिश्चित करने के लिए उचित मिट्टी और साइट सर्वेक्षण करने की भी आवश्यकता होती है। देखना है कि उत्तराखंड में पुल ढहने का यह सिलसिला कब खत्म होगा।
पुल और राजनीति
15 जुलाई 2020 को बिहार के गोपलगंज जिले में गंडक नदी पर 263 करोड़ रुपये की लागत से बना सत्तरघाट पुल टूटकर नदी में बह गया। इस महासेतु का निर्माण पुल निर्माण विभाग की तरफ से कराया गया था। साल 2012 में पुल निर्माण का कार्य शुरू हुआ और 16 जून 2020 को इस महासेतु का उद्घाटन किया गया। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस पुल का उद्घाटन किया था। उद्घाटन के महज 29 दिनों के भीतर ही यह पुल नदी में समा गया। वहीं, इस पुल के ध्वस्त होने से चंपारण तिरहुत और सारण के कई जिलों का संपर्क टूट गया।
मजेदार बात यह रही कि बिहार सरकार ने इस घटना को कोरी अफवाह करार दिया। राज्य सरकार का कहना था कि ऐसी कोई घटना हुई ही नहीं है। लेकिन लगभग सभी समाचार चैनलों में पुल ढहने की खबर चल रही थी। वहीं सरकार द्वारा जारी बयान में कहा गया कि सत्तरघाट पुल नहीं ढहा है, बल्कि मुख्य पुल से लगभग दो किलोमीटर दूर 18 मीटर लंबाई का एक छोटा पुल टूटा है। इसे सत्तरघाट का पुल बताकर घटना को प्रचारित किया जा रहा है।
उस समय तेजस्वी यादव, बिहार सरकार में भागीदार नहीं थे। इस घटना पर तेजस्वी यादव ने ये ट्वीट किया था : '8 वर्ष में 263.47 करोड़ की लागत से निर्मित गोपालगंज के सत्तर घाट पुल का 16 जून को नीतीश जी ने उद्घाटन किया था आज 29 दिन बाद यह पुल ध्वस्त हो गया। ख़बरदार!अगर किसी ने इसे नीतीश जी का भ्रष्टाचार कहा तो?263 करोड़ तो सुशासनी मुँह दिखाई है।इतने की तो इनके चूहे शराब पी जाते है'
उल्लेखनीय है कि भारत में पुल टूटने पर राजनीति भी खूब होती है। इसमें गम्भीरता की बजाए टांग खिंचाई ज्यादा होती है।
देश में पुल टूटने की वजहें
एक अंतरराष्ट्रीय जर्नल, स्ट्रक्चर एंड इन्फ़्रास्ट्रक्चर इंजीनियरिंग में भारत में पिछले चार दशकों में 2,130 पुलों के ढहने रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी। इस जर्नल के अनुसार भारत में प्राकृतिक आपदाओं के चलते 80.3 प्रतिशत पुलों के बुनियादी ढांचे विफल होने कारण सबसे विनाशकारी प्रभाव हुए हैं। प्राकृतिक आपदाओं के अलावा, पुलों के ढहने की घटनाओं में 10.1 फ़ीसदी घटनाएँ सिर्फ़ इसलिये घटी हैं, क्योंकि उसमें घटिया निर्माण सामग्री का उपयोग किया गया था। ओवरलोडिंग के मामले में 3.28 फ़ीसदी पुल ही ढहे हैं।
भारत में अधिकांश पुल बहुत पुराने हैं और इनके नवीनीकरण की तत्काल आवश्यकता है।
1980 के दशक से पिछले 30 वर्षों से इस मुद्दे को हल करने के लिए बड़ी रकम का निवेश किया गया है, लेकिन स्थिति हल होने से बहुत दूर है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि भ्रष्टाचार, भारत में पुलों की खराब गुणवत्ता के मूल कारणों में से एक है। उपयोग की जाने वाली सामग्रियों की गुणवत्ता इतनी घटिया है कि अधिकांश पुलों को बनते ही मरम्मत की आवश्यकता होने लगती है। जब कोई विशेषज्ञ, उन पुलों की नींव के बारे में सोचता है जो नग्न आंखों से दिखाई नहीं देते हैं तो सिहर उठता है। निर्माण सामग्री की घटिया गुणवत्ता के अलावा, पुलों के निर्माण में लगने वाला समय भी आवश्यकता से कहीं अधिक है। सरकार के लिए यह तत्काल आवश्यकता है कि वह स्थिति की तात्कालिकता पर ध्यान दे और इसे सुधारने की दिशा में कदम उठाए।
पुलों की डिजाइन या तकनीक में कमी नहीं
दिल्ली के आईआईटी जैसे देश के विशिष्ट इंजीनियरिंग संस्थान का मानना है कि पुल गिरने जैसे हादसों के पीछे तकनीकी खामी नहीं, बल्कि इंसानी लापरवाही और लालच कारण है। आईआईटी दिल्ली के विशेषज्ञों का कहना है कि देश में पुल, ब्रिज या फ्लाईओवर बनाने के लिए भरोसेमंद व आधुनिक तकनीक उपलब्ध है। विशेषज्ञों का कहना है कि हादसे तब होते हैं, जब तकनीकी पहलुओं को नजरअंदाज कर दिया जाता है। गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल में भी एक निर्माणाधीन पुल टूटने की घटना सामने आई थी। उस समय भी निर्माण कार्य में लापरवाही बरतने के गंभीर आरोप लगे थे।
आईआईटी दिल्ली के मुताबिक भारत के पास निर्माण के लिए बेहतरीन टेक्नोलॉजी उपलब्ध है। अच्छे निर्माण के लिए आवश्यक है कि मौजूदा टेक्नोलॉजी को सही तरीके से अमल में लाया जाए। मोरबी जैसे हादसे मानवीय लालच और लापरवाही का नतीजा है। टेक्नोलॉजी की कमी को इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। यदि सभी नियम कायदों का पालन करते हुए निर्माण कार्य या रिनोवेशन की जाए तो ऐसे हादसे नहीं होंगे, लेकिन जब निर्माण से जुड़े व्यक्ति लापरवाही और लालच के कारण नियमों की अनदेखी करते हैं, तो ऐसे ऐसे हादसे सामने आते हैं।
रुक क्यों नहीं रहा पुल टूटने का सिलसिला
दुर्भाग्य की बात है कि देश में पुल ढहने की दुर्घटनाओं में जान-माल की भयानक हानि के बावजूद किसी को सख्त सज़ा होने की जानकारी आज तक उपलब्ध नहीं हो पाई है।
कोई ऐसी सरकार नहीं है जिसके कार्यकाल ही में बना पुल उसके कार्यकाल में ही ज़मींदोज़ न हुआ हो। सवाल यह उठता है कि इसकी जवाबदेही तो तय की ही जानी चाहिए। जिन मामलों में घटिया सामग्री के उपयोग की बात सामने आती है, उनके ख़िलाफ़ तो सख्त कार्रवाई होनी ही चाहिए। ऐसा नहीं होने की वजह से ये घटनाएँ भारत में रूकने का नाम नहीं लेंगी।
पुल टूटने पर ब्लेम गेम खेला जाता है। अमूमन नगर पालिका, ज़िला प्रशासन, राज्य सरकार, केंद्र सरकार और पुल का निर्माण करने वाली कंपनी इन सब के बीच एक-दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप का दौर जारी हो जाता है। इसके चलते इसमें भी कोई ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जाता। अगर इसमें कोई ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जाता है तो हमें यह मान लेना चाहिए कि यह सिलसिला अंतहीन है। ऐसे में हम पुल टूटने की आपदाओं में अपनी जान गँवाते रहेंगे।
थोड़ा जिक्र रोपवे हादसों का भी
मौजूदा वित्त वर्ष 2022-23 का बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने देश के पहाड़ी इलाकों के लिए खास योजना की घोषणा की है। वित्त मंत्री ने पहाड़ी इलाकों में सुगम यात्रा के लिए, पर्वतमाला परियोजना-राष्ट्रीय रोपवे विकास कार्यक्रम चालू करने का ऐलान किया है। इसके लिए उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर राज्यों से प्रस्ताव मिल चुके हैं। इसी वित्त वर्ष में ही 60 किलोमीटर की लंबाई वाली 8 रोप-वे परियोजनाओं पर काम शुरू करने की योजना है।
रोप-वे यानी रस्सी (केबल) के सहारे बनने वाला रास्ता। आमतौर पर इसका प्रयोग पहाड़ी इलाकों में आवागमन सुगम बनाने के लिए किया जाता है। रोप-वे भारत के पर्वतीय प्रदेशों में नया ट्रांसपोर्ट सिस्टम है। रोपवे ऐसी जगह बनाई जाती हैं, जहां पुल बनाना संभव नहीं है। कुछ जगह ये ट्रॉलियां मैनुअल तरीके से हाथ से रस्सी खींचकर चलाई जाती हैं। उधर, टूरिस्ट प्लेस पर चलाई जाने वाली केबल कार ज्यादा आरामदायक और सुरक्षित सफर वाली होती है, जिसे बिजली के मोटर या डीजल इंजन की मदद से दोनों सिरों पर केबल को खींचकर चलाया जाता है।
बड़े दुख की बात है कि ये रोपवे भी हादसों से अछूते नहीं रहे हैं।
इस साल 9 अप्रैल को झारखंड के देवघर में त्रिकुट पर्वत पर रोप-वे पर हादसा हो गया। रोप-वे की ट्रॉलियों में फंसे 46 पर्यटकों को 45 घण्टे चले रेस्क्यू ऑपरेशन में बचा लिया गया लेकिन इसमें 4 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी। देश में देवघर हादसे के चार महीनों के अंदर दो रोप-वे हादसे हो और हो चुके हैं, हिमाचल प्रदेश के सोलन में टिंबर ट्रेल रोप-वे की केबल कार बीच में रुकने से 11 पर्यटक घंटों तक मौत से जूझते रहे। उत्तराखंड के धनौल्टी में 2 महीने पहले लगे रोप-वे में तकनीकी खराबी से विधायक समेत कई लोग घंटों हवा में लटके रहे।
पिछले दो दशक में हुए रोपवे हादसे
- साल 2003 में ही गुजरात के पंचमहल जिले में तीन केबल कार का एक्सीडेंट होने से 7 लोगों की मौत हो गई थी।
- पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग में साल 2003 में ही सिंगमेर और तुकवर के बीच दो केबल कार तारों से फिसल गई थी। इसके चलते नीचे गिरकर चार टूरिस्ट्स की मौत हो गई थी और 10 गंभीर घायल हो गए थे।
- उत्तराखंड के मशहूर पर्यटन स्थल मसूरी में साल 2005 में केबल कार बीच में ही फंस गई थी।
- साल 2016 में छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव जिले में बम्लेश्वरी देवी मंदिर जाती केबल कार पहाड़ से टकरा गई थी। इसमें एक बुजुर्ग महिला की मौत हो गई थी।
- साल 2016 में ही विशाखापत्तनम के कैलाशगिरि रोप-वे पर केबल कार का हुक टूटकर महज 6 फीट की ऊंचाई से नीचे गिरने पर 7 लोग घायल हो गए थे।
- साल 2017 में जम्मू-कश्मीर के गुलमर्ग में रोप-वे का केबल बीच में ही टूटने से नीचे गिरकर 7 लोगों की मौत हो गई थी।
- साल 2019 में जम्मू में रोप-वे के निर्माण के दौरान ही केबल कार टूटकर गिरने से दो मजदूरों की मौत हो गई थी।
- साल 2021 में छत्तीसगढ़ में भी एक रोप-वे के निर्माण के दौरान ट्रॉली असंतुलित होकर नीचे गिरने से एक मजदूर की मृत्यु हो गई थी।
- साल 2022 में झारखंड के देवघर में रोपवे दुर्घटना में 4 पर्यटकों की मौत हो गई थी।
महत्वपूर्ण बात यह है कि इन हादसों में मरने वालों की संख्या भले ही ज्यादा नहीं रही हो, फिर भी हवा में गहरी घाटियों की सुंदरता निहारते हुए जाने के इस एडवेंचर पर सवाल खड़े हो गए हैं। रोपवे पर सैर करने के लिए पर्यटकों से मोटी रकम वसूली जाती है, ऐसे में पैसा देकर मनोरंजन के नाम पर मौत मिले तो सिहरन पैदा होना लाजमी है।
रोप-वे पर हादसों के कारण
रोपवे हादसों का सबसे बड़ा कारण समय पर रोप-वे की सभी केबल का मेंटिनेंस नहीं होना है। साल 2017 में जम्मू-कश्मीर के गुलमर्ग में रोप-वे का केबल बीच में ही टूटने से नीचे गिरकर 7 लोगों की मौत हो गई थी। बताया जाता है कि इस हादसे का कारण रोपवे केबलों पर खोखले हो चुके एक विशालकाय पेड़ का टूटकर गिरना था। अगर इसे समय रहते देख लिया जाता तो सात बेश जिंदगियां बच सकती थीं।
उपकरणों का समय-समय पर सेफ्टी ऑडिट नहीं होना भी चिंता का विषय है। गियर बॉक्स, सर्विस ब्रेक, सेफ्टी ब्रेक और ड्राइव की खराबी भी जानलेवा साबित होती है। इलाके की स्थिति के लिहाज से गलत टॉवर, केबल का चयन भी हादसों को न्योता देता है। क्षमता से ज्यादा सवारियों को केबल कार के अंदर ले जाना भी जोखिम बढ़ा देता है। हमारे देश में विकसित देशों की तरह रोपवे संचालन-रखरखाव की साइंटिफिक ट्रेनिंग नहीं है। इसके साथ-साथ एडवेंचर टूरिज्म की सेफ्टी को लेकर देश में कोई रेगुलेटिंग अथॉरिटी नहीं होना भी रोपवे हादसों का प्रमुख कारण है।
चलते-चलते
गुजरात में मोरबी नगर पालिका ने 15 साल के लिए 'ओरेवा ग्रुप' नामक एक प्राइवेट कंपनी को झूला पुल की मरम्मत और रखरखाव का काम सौंपा था। कंपनी पर रखरखाव में लापरवाही बरतने का आरोप है। हादसे के बाद अब तक नौ लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है। जांच में पता चला है कि ओरेवा समूह ने सालों पुराने पुल के रेनोवेशन में महज 12 लाख रुपए ही खर्च किए, जबकि पुल के रेनोवेशन के लिए कंपनी को 2 करोड़ रुपए आवंटित किए गए थे। ओरेवा कंपनी पर लापरवाही का आरोप है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि नगर पालिका प्रशासन और राज्य सरकार दोनों ही विपक्षी दलों के निशाने पर थीं। हादसे के एक महीने में ही मोरबी में मतदान होना था। देश भर में मोरबी पुल हादसे के कारण गुजरात सरकार के प्रति रोष था। कांग्रेस व आम आदमी पार्टी ने भारतीय जनता पार्टी को निशाने पर लेकर भ्रष्टाचार के आरोप लगा रखे थे।
8 दिसम्बर 2022 को गुजरात विधानसभा चुनावों के नतीजे आने थे। सभी देशवासी मोरबी विधानसभा चुनाव के परिणाम पर टकटकी लगाए हुए थे। आखिरकार मोरबी विधानसभा सीट पर भारतीय जनता पार्टी ने बड़ी जीत हासिल की। यहां भाजपा उम्मीदवार कांतिलाल अमृतिया ने कांग्रेस के जयंतिलाल जेराजभाई पटेल को 62079 वोटों के बड़े अंतर से हरा दिया!
मोरबी विधानसभा चुनाव 2017 के परिणाम की बात करें तो उस समय यहां ब्रजेश मेरजा ने कांग्रेस के टिकट पर जीत हासिल की थी!
मतदाताओं का मन कोई नहीं पढ़ सकता!
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