गौरक्षा का धर्म ... खतरा या पराक्रम

 

1980 के दशक तक आर्यसमाजी भजनोपदेशक अक्सर यह तुकबंदी कहते हुए सुनाई दे जाते थे कि आजकल इस देश में सबकी इज्जत है सिवाय गऊ और बहू के। यह तुकबन्दी लोगों को अंदर तक झकझोर देती थी। हालांकि उस समय गौकसी और आवारा गौवंश की समस्या इतनी विकराल नहीं थी लेकिन देश में दहेज की कुप्रथा के चलते ज्यादातर नवविवाहिताओं की हालत वाकई काफी खराब थी। ससुरालियों के मनमुताबिक दहेज न लाने पर नवविवाहिता को मारा-पीटा जाता था और उसके साथ पशुओं जैसा व्यवहार किया जाता था। दहेज के कारण घटित हो रही इन जघन्य घटनाओं ने समाज को झकझोरा, इनके खिलाफ विरोध प्रदर्शन हुए। अतः नवविवाहिताओं को दहेज़ प्रताड़ना से बचाने के लिए संसद द्वारा 1983 में, किसी महिला को उसके पति और उसके रिश्तेदारों के हाथों उत्पीड़न के खतरे का मुकाबला करने के लिए आईपीसी की धारा 498-ए पारित की गई। यह धारा 498-ए एक संज्ञेय और गैर-जमानती अपराध है। आरोप सिद्ध होने पर इसमें तीन साल तक की कैद और जुर्माने भी लगाया जा सकता है। लेकिन यह धारा इतनी सख्त बना दी गई थी कि इसके प्रावधान के तहत पति और उसके रिश्तेदारों को गिरफ्तार कर लिया जाता है। अनेक मामलों में, दशकों से विदेश में रहने वाले पतियों, उनकी बहन-बहनोई, माता-पिता और दादा-दादी तक को गिरफ्तार कर लिया गया। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट सहित विभिन्न अदालतों ने वर्षों से धारा 498-ए को दुरुपयोग की संभावना के रूप में कहा। अतः 2015 में सरकार ने इस अपराध को कंपाउंडेबल बनाने का भी प्रयास किया। इससे शिकायतकर्ता आरोपी के साथ समझौता कर सकते थे और आरोप वापस लेने के लिए सहमत हो सकते थे। खैर, इस कानून पर विचार-विमर्श जारी है।

लेकिन इस लेख का मुद्दा बहुओं पर अत्याचार नहीं बल्कि हाल ही के कुछ वर्षों से गौरक्षा और गौकसी से जुड़ी भावनात्मक घटनाओं को राजनीतिक हथियार बनाने पर है। क्या गौकसी को रोकने के लिए इस तरह के मामलों में कुछ राज्यों में धारा 498-ए जैसे या उससे भी सख्त कानून तो नहीं बना दिए गए और क्या यह पूरे देश के लिए एक समान बनाये गए हैं। हम इस लेख में विस्तृत चर्चा करेंगे कि आखिरकार गाय नामक एक उपयोगी जानवर को राजनीतिक पशु क्यों बना दिया गया है। गाय को बचाने के नाम पर किस तरह मनुष्यों की हत्या को जायज ठहरा दिया जाता है। गाय के नाम पर किस तरह सरकारें बना ली जाती हैं और गिरा दी जाती हैं। चर्चा करेंगे कि कुछ लोग व संस्थाएं गौरक्षा के नाम पर तस्करों के साथ क्यों मिली हुई हैं। 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके आनुषंगिक संगठन बछड़े और बैलों सहित गोवंश के वध पर पूर्ण प्रतिबंध चाहते हैं, लेकिन धार्मिक भावनाओं के आधार पर प्रतिबंध लगाने की बहस आंकड़ों पर आकर उलझ जाती है।

मीडिया में छपी रिपोर्ट्स बताती हैं कि जनवरी 2010 से जून 2017 तक गोहत्या और बीफ के मामलों को लेकर देश में हिंसा की 63 घटनाएं हुईं, इन मामलों में कुल 28 लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया जबकि 124 लोग घायल हो गए। 



गाय, इतिहास के झरोखे से

भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद के सदस्य, इतिहासकार व दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डीएन झा  ने लंबे समय से भारतीय इतिहास में गाय के स्थान के बारे में शोधकार्य किया है। उन्होंने अपनी पुस्तक द मिथ ऑफ द होली काउ  में शास्त्रीय प्रमाण प्रस्तुत किए हैं कि प्राचीन भारत में गाय को पवित्र नहीं माना जाता था। झा ने लिखा है कि इंद्र को बैलों से विशेष लगाव था। उनके अनुसार इंद्र घोड़ों, बैलों और गायों के मांस का शौकीन था। उसके लिए जानवरों (मवेशियों सहित) को मारना अधिकांश ऋग्वैदिक यज्ञों के लिए बुनियादी था। झा ने लिखा है कि मरुतों और अश्विनों को भी गायों की पेशकश की गई थी। झा के अनुसार देवताओं को प्रसन्न करने के लिए मवेशियों की बलि और गायों के मारे जाने का बहुत उल्लेख मिलता है। उन्होंने कहा है कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि गायों की हत्या की गई और ब्राह्मणों ने गाय का मांस खाया। यह प्रथा वैदिक काल के बाद भी जारी रही। यह बौद्ध काल के दौरान और मौर्यों के समय में भी अस्तित्व में था। मनु स्मृति में भी इसका उल्लेख है। उस समय विवाह, जनेऊ संस्कार, अतिथि के आगमन, मृत्यु के समय, गृहप्रवेश के समय गायों की हत्या की जाती थी। शास्त्रों में इसके कई उदाहरण दिए गए हैं। यदि कोई माननीय अतिथि होता, तो उसे गाय का मांस परोसा जाता। कृषि समाजों में यह बहुत आम था। 

लेकिन कुछ समय बाद ब्राह्मणों (तत्कालीन समाज का प्रबुद्ध वर्ग) को धीरे-धीरे गाय के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलना पड़ा। पहली सहस्राब्दी ईस्वी की शुरुआत में, यह परिवर्तन मुख्य रूप से उत्तरी भारत में हो रहा था। इसकी कोई सटीक तारीख नहीं है। गाय को एक अलग स्थिति प्राप्त करने में काफी समय लगा। इसमें कई शताब्दियां लग गईं। इस परिवर्तन का  कारण आर्थिक था। क्योंकि जैसे-जैसे अधिक से अधिक भूमि खेती के अंतर्गत आती गई, गाय का आर्थिक महत्व बढ़ता गया। गाय-बैल को समृद्धि के प्रतीक और आजीविका के साधन के तौर पर देखा जाने लगा। वे खेत जोतने, दूध, ईंधन और खाद का महत्वपूर्ण साधन बन चुके थे।

इस कालखंड में ब्राह्मणों ने कहा कि ठीक है, हमारी गायों को नहीं मारा जाएगा, लेकिन जाति के क्रम में सबसे नीचे वाला वर्ग उनकी हत्या कर सकता है, लेकिन हम नहीं मारेंगे। उन्होंने पशुहत्या को दलितों से जोड़ दिया। यह प्रक्रिया क्रमिक थी जो बहुत धीमी थी, इसमें सैकड़ों वर्ष लगे। 

अब गाय कृषि कार्यों और दूध के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हो गई थी। अतः इसका संरक्षण करने का प्रयास किया गया। उनकी हत्या करने को पापी और बहुत बुरी नजर से देखा जाता था। समय के साथ गायों से जुड़ी धार्मिक भावनाओं के परवान चढऩे के साथ टकराव भी बढऩे लगे। ये टकराव पहले 16वीं सदी में मुगलों के समय हुए जिनके मन में गाय के प्रति ऐसी कोई श्रद्धा नहीं थी। फिर 18वीं सदी में अंग्रेजों के आने के साथ भी टकराव हुआ क्योंकि यूरोपीय गोमांस खाने के आदी थे। प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन 1857 के महत्वपूर्ण कारकों में एक कारक यह भी है कि अंग्रेजी सेना में भारतीय सिपाहियों को ऐसे कारतूस अपने मुँह से खोलने पडते थे जो गौमांस से बने हुए थे। इससे उनकी धार्मिक आस्था पर चोट लगी।

यह बीसवीं शताब्दी तक जारी रहा। इस समय भैंस दूध के लिए महत्वपूर्ण भूमिका में आ गई थी और कृषि कार्यों के लिए बैलों की जगह ट्रैक्टरों ने ले ली। अब गाय अप्रसांगिक सी होने लगी थी। अब गाय पालना मुनाफे का नहीं बल्कि घाटे का सौदा साबित होने लगा।

मगर 19वीं सदी के अंत में स्वामी दयानंद सरस्वती ने गाय का इस्तेमाल हिंदुओं (आर्यों) की लामबंदी के लिए किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने 1925 से इसे उसी तरह इस्तेमाल किया है। इसका इस्तेमाल राजनीति के लिए किया गया है, वह भी साधारण राजनीति के लिए नहीं, बल्कि साम्प्रदायिक राजनीति के लिए। यह धार्मिक ध्रुवीकरण का प्रयास है। तार्किकता के आधार पर गाय का आध्यात्मिकता से कोई लेना-देना नहीं है। पुराने जमाने में बेहद उपयोगी रहा यह पशु आज  सिर्फ एक राजनीतिक जानवर है।

आजादी के समय गाय की राजनीतिक स्थिति

भारत का संविधान तैयार करने की प्रक्रिया को पूरी तरह पढ़ने से पता चलता है कि गायों को लेकर संविधान सभा के दो विरोधी खेमों में बहस छिड़ गई थी। गोवध विरोधी मोर्चे में पंडित ठाकुर दास भार्गव और सेठ गोविंद दास आदि नेता थे और उनके मुकाबले में जवाहरलाल नेहरू और बी.आर. आंबेडकर सरीखे नेता थे, जो गोवध विरोधी मोर्चे का विरोध कर रहे थे।

भारत की संविधान सभा ने गायों की हालत पर खासी गहराई और विस्तार से विचार किया था. कॉन्स्टिट्यूशन हॉल नई दिल्ली में 24 नवंबर, 1948 को गाय पर हुई चर्चा इतिहास के पन्नों में दर्ज है। गाय शीर्षक के तहत सांड, बैल, गाय प्रजाति के युवा पशुधन को शामिल करने की कोशिश वोटों के दम पर नाकाम हो गई और सिर्फ दुधारू गाय को इसमें जोड़ा गया और आखिरकार इस विषय को संविधान में अनुच्छेद 48 के रूप में शामिल किया गया, बुनियादी अधिकार के तौर पर नहीं, बल्कि राज्य के नीति-निर्देशक तत्व के तौर पर, जो राज्यों का यह कर्तव्य निर्धारित करते थे कि वे कानून बनाने में उन सिद्धांतों को लागू करेंगे। यह कानूनी सवाल अभी तक सुलझा नहीं है कि क्या निर्देशक सिद्धांत अल्पसंख्यकों के बुनियादी अधिकार से ऊपर हो सकता है? 


गाय पर वर्तमान कानून और न्यायालय

वर्ष 2005 में गुजरात सरकार और मिर्जापुर मोती कुरेशी कस्साब मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की पीठ ने न केवल गाय बल्कि गायों की पूरी प्रजाति पर संपूर्ण प्रतिबंध को जायज ठहराया था। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें न तो लोकप्रिय हिंदू भावनाओं का जिक्र किया गया, न ही आजीविका के अधिकार या पशु पर क्रूरता की दलील दी गई। इसकी बजाए मूत्र और गोबर से लेकर गायों (दुधारू, भैंस, बैल, युवा और बूढ़ी) के मूल्य पर आधारित आर्थिक दलील को तरजीह दी गई थी।

देश में इस समय गोवध को रोकने को लेकर कोई राष्ट्रीय कानून नहीं है, अलग-अलग राज्यों ने अपने स्तर पर अलग-अलग प्रतिबंध लगाए हैं। पूर्वोत्तर राज्यों, केरल और लक्षद्वीप में कोई प्रतिबंध नहीं है। हालांकि 10 साल से कम उम्र के पशुओं को नहीं मारा जा सकता। तमिलनाडु, असम और पश्चिम बंगाल में गौवध के लिए, बूढ़ी या आर्थिक रूप से बेकार होने का प्रमाणपत्र देना पड़ता है। आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तेलंगाना, बिहार, गोवा और ओडिसा में गोवध पर प्रतिबंध है, मगर अन्य पशुओं के लिए प्रमाणपत्र की जरूरत होती है. बाकी ज्यादातर राज्यों में गाय और सभी उम्र के सांड तथा बैलों सहित उसकी प्रजाति के वध पर पूरा प्रतिबंध है।


यह भी काबिलेगौर है कि 2005 के सुप्रीम कोर्ट वाले फैसले के बाद राज्यों में सख्त कानूनों का रास्ता खुल गया। सबसे पहले इसकी शुरुआत 2011 में मध्य प्रदेश ने की, जहां गोवध के लिए और किसी भी गाय प्रजाति को एक से दूसरी जगह ले जाने के लिए सात साल की जेल की सजा का प्रावधान किया गया। इसके बाद 2015 में हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और पंजाब ने भी गोवध, ढुलाई, निर्यात, बिक्री और (सांड, बैल, वृषभ, बछिया या बछड़े के) गोमांस के सेवन पर प्रतिबंध लगा दिया। इसमें डिब्बाबंद गोमांस और दुर्घटनावश या आत्मरक्षा में गोवध को छूट दी गई। उत्तर प्रदेश सरकार ने भी दो साल पहले गोहत्या क़ानून को सख़्त करते हुए 10 साल तक की सज़ा तय कर दी थी।

लेकिन महाराष्ट्र में मार्च 2015 में पारित किया गया महाराष्ट्र पशु परिरक्षण (संशोधन) विधेयक 1995,  सबसे ज्यादा सख्त है। इस विधेयक में गोवंश की हत्या, बिक्री, कब्जा, उपभोग और निर्यात को गैर-जमानती अपराध घोषित किया गया है। इसके लिए पांच साल तक के कारावास या 10,000 रु. के जुर्माने या दोनों की सजा दी जा सकती है। हालांकि इसे बंबई हाइकोर्ट में चुनौती दी गई है, जिस पर अदालत ने सरकार से औचित्य बताने को कहा है कि दूसरे पशुओं को भी इस प्रतिबंध के तहत क्यों शामिल नहीं किया जाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा गौरक्षा पर दिए फैसले पर जम्मू-कश्मीर में व्यापक विरोध प्रदर्शन और विधानसभा में हंगामा आखिरकार तब थमा, जब सुप्रीम कोर्ट ने प्रतिबंध को दो महीनों के लिए स्थगित कर दिया और इस मुद्दे पर फैसले के लिए तीन सदस्यों की पीठ का गठन कर दिया।

गाय और गोवंश पर राजनीति

आज गाय और गोवंश के मांस पर प्रतिबंध लगाने की मुखर मांग भगवा एजेंडे में सबसे संवेदनशील मुद्दा बन गई है। यह बेहद आसान मुद्दा भी है। जिसके बल पर हमारे कृषि प्रधान देश में, जहां गाएं बड़ी तादाद में हैं, धार्मिक भावनाएं भड़काई जा सकती हैं। इस मुद्दे पर अल्पसंख्यकों और दलितों को गोहत्यारों के तौर पर अलगाव का शिकार बनाया जा सकता है।  कांग्रेस के नेता सलमान खुर्शीद कह चुके हैं कि मुद्दा पवित्र पशु के प्रति चिंता का नहीं है, बात  सियासी आधार बढ़ाने की है। भाजपा, आर्थिक और राजनैतिक प्राथमिकताओं के बारे में स्पष्ट नहीं है। वे ऐसे मुद्दे उठा रहे हैं, जो हमारी राष्ट्रीय एकता को नष्ट करने और चोट पहुंचाने वाले हैं।


दोहरे मापदंड

त्रिपुरा में 25 साल पुरानी वाम सत्ता को उखाड़ फेंकने के बाद भाजपा के राज्य प्रभारी सुनील देवधर ने बीफ के मामले पर कहा कि किसी राज्य में अगर बहुसंख्यक लोग नहीं चाहते हैं कि वहां कि सरकार इस पर प्रतिबंध लगाए तो सरकार नहीं लगाएगी। इससे स्पष्ट है कि भाजपा पूर्वोत्तर राज्यों में बीफ पर प्रतिबंध लगाने के कतई पक्ष में नहीं है। सुनील देवधर ने कहा कि पूर्वोत्तर राज्यों में बहुसंख्यक लोग बीफ खाते हैं तो सरकार उसपर प्रतिबंध नहीं लगा सकती है और न ही उस पर लगेगा, पूर्वोत्तर राज्यों में मुस्लिम और ईसाई बहुसंख्यक हैं। उन्होंने कहा कि यहां के कुछ हिंदू भी मांस खाते हैं। 

उधर 2020 में गोवा के मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत ने कहा है कि वह व्यापारियों को अपने राज्य में मवेशी लाने और हत्या की इजाज़त देंगे। भाजपा शासित राज्य में उनके इस बयान से लोग हैरान रह गए।क्योंकि मुख्यमंत्री अपनी पार्टी के राष्ट्रीय एजेंडा के ख़िलाफ़ बोल रहे थे। प्रमोद सावंत ने इस पर सफाई दी कि राज्य का मुख्यमंत्री होने के नाते मेरी ज़िम्मेदारी है कि मैं राज्य के अल्पसंख्यकों का भी ख़याल रखूँ। गोवा में 30 फ़ीसदी ऐसे अल्पसंख्यक हैं जो बीफ़ खाते हैं।

मुख्यमंत्री का ये बयान तब आया जब राज्य में महाराष्ट्र और कर्नाटक के कारण बीफ़  की उपलब्धता को लेकर संकट पैदा हो गया। दरअसल चार साल पहले महाराष्ट्र ने बीफ़ और मवेशियों को काटे जाने पर प्रतिबंध लगा दिया था और 2020 में कर्नाटक में भी गौहत्या पर प्रतिबंध लगा दिया गया। कर्नाटक में बीफ़ पर लगे प्रतिबंध के क़ानून को सख्ती से लागू किया गया। इसके तहत दूसरे राज्यों में कर्नाटक से बीफ़ ले जाने पर भी प्रतिबंध लगाया गया।

स्पष्ट है कि राजनीतिक दलों के एजेंडे समय और स्थान के हिसाब से यू टर्न ले लेते हैं। जो राजनीतिक पार्टी उत्तर भारत में गौहत्या को पाप मानती हो और वही पार्टी अपने द्वारा शासित दूसरे राज्यों में गौमांस को केवल खानपान का हिस्सा मानकर मामले को रफा दफा करने में विश्वास करती हो, क्या वह गौरक्षा के लिए वाकई सीरियस हो सकती है?


गोपालकों पर होने वाला गोहत्या पर पाबंदी का असर 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भगवा देश के पैरोकार पिछले कुछ समय से सम्पूर्ण देश में गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध की मांग कर रहे हैं। लेकिन यह भी कड़वी सच्चाई है कि यह मांग करने वाले ज्यादातर लोग खुद गाय नहीं पाल रहे। या तो वे गाय पर राजनीति कर रहे हैं या वे बड़ी-बड़ी गौशालाओं से जुड़े हैं जिनमें दान, चंदा और सरकारी ग्रांट से गायों को पाला पोसा जाता है।

लेकिन जो व्यक्ति या किसान आर्थिक आधार पर गाय पाल रहे हैं, उनके अर्थशास्त्र पर ये कथित गौरक्षक चुप हैं। अगर देश में गोहत्या पर पूर्ण पाबंदी लगा दी जाती है तो उसका असर भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर बेहद खतरनाक होगा, जहां बछड़े और बैलों का जीवनचक्र किसानों की टिकाऊ अर्थव्यवस्था में मदद करता है। मान लीजिए कोई किसान एक बैल 30,000 रु. से 60,000 रु. में खरीदता है तो दो साल बाद भी उसकी कीमत उतनी ही बनी रहती है। लेकिन जब वह चोट लगने या बीमारी के कारण काम के लायक नहीं रह जाता या उसे रखना किफायती नहीं होता तो किसान उसे बूचडख़ाने को 15,000 रु. से 25,000 रु. तक में बेच देता है। इस तरह उसे लगभग 40 प्रतिशत रकम वापस मिल जाती है, जिससे वह दूसरा पशु खरीद लेता है। गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध लगने से किसान के पास काम के लायक न रहने वाले बैल को ठिकाने लगाने की कोई जगह नहीं रहती। हर व्यस्क गाय या बैल को रोजाना औसत 30 से 50 किलो चारा और 60 से 70 लीटर पानी की जरूरत होती है। इस खर्च की सालाना अनुमानित कीमत प्रति गाय या बैल 40 हजार रु. बैठती है। पूरे देश में इस तरह के गौवंश की संख्या करोड़ों में बैठती है। इन सभी को खिलाने-पिलाने में कितनी बड़ी रकम खर्च होगी उसका सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है। गौहत्या की मांग करने वाले कभी इस सवाल का जवाब नहीं देते कि इससे प्रभावित पशुपालकों को मुआवजा कौन और कैसे दिया जायेगा।


पाबंदी लगने पर कहाँ जाएगा ये गौवंश

2022 के उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि गाय कुछ लोगों के लिए गुनाह हो सकती है, हमारे लिए गाय माता है, पूजनीय है। गाय-भैंस का मज़ाक़ उड़ाने वाले लोग ये भूल जाते हैं कि देश के आठ करोड़ परिवारों की आजीविका ऐसे ही पशुधन से चलती है। इस पर समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव ने कहा था कि भाजपा की नीतियों की वजह से प्रदेश में लाखों आवारा मवेशियों ने किसानों के सपनों को तोड़ दिया है। दरअसल, 2017 में उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार बनते ही मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री बनते ही प्रदेश में हज़ारों अवैध बूचड़खानों को बंद करवा दिया। योगी आदित्यनाथ ने कहा था कि यह पहली सरकार है, जिसने प्रदेश के अंदर अवैध बूचड़खानों को पूरी तरह प्रतिबंधित करके गो-तस्करी को भी उत्तर प्रदेश में पूरी तरह प्रतिबंधित किया है। जो व्यक्ति उत्तर प्रदेश के अंदर, गो-हत्या की बात तो दूर, जो भी गाय से क्रूरता करेगा उसकी जगह जेल में होगी। जल्द ही इसके परिणाम दिखाई दिए प्रदेश में लाखों आवारा पशुओं के आतंक के रूप में।

भारत में गाय और बैलों की कुल संख्या लगभग 20 करोड़ है। इसके अलावा यहाँ 11 करोड़ भैंसें भी हैं। देखा जाए तो ये दोनों मिलकर देश की कुल मानव आबादी का करीब 25 प्रतिशत बैठता है। अगर गोहत्या पर पूर्ण पाबंदी लग जाती है तो नाकारा गोवंश को रखने के लिए न यो कोई योजना है न कोई फंड। यही नहीं, देश में गोशालाओं के लिए कोई जगह नहीं बची है। हरियाणा और उत्तरप्रदेश में गोहत्या पर सख्ती होने से इस तरह की लाखों गाय-सांड-बछड़े और भैंसें खेतों और सड़कों पर आवारा मंडराने के लिए अभिशप्त हैं। पहले किसी पशुपालक पर अचानक आर्थिक आपदा आ जाती थी, कोई पशु बीमार होता था या कोई मर जाता था, तो वह उस जानवर को बेच देता था और घर चला लेता था। अब कड़े कानूनों से स्थिति ऐसी है कि इन्हें कोई पूछ नहीं रहा है, जैसे घर में कोई कबाड़ हो जाए, बाहर निकाल देते हैं।

ये आवारा गौवंश किसानों के लिए दुःस्वप्न बन चुके हैं। हर किसान को इनसे चौबीसों घंटे अपनी फसल की रखवाली करनी पड़ती है। अगर किसी किसान ने रखवाली में एकाध घण्टे की ढील बरत दी तो समझो उस पर यमराज हँस जाता है। ये आवारा जानवर पलक झपकते ही उसकी खेती को चट कर डालते हैं। यही नहीं सैंकड़ों किसान इनको खेत से निकालने के समय हुए हमलों में शहीद हो चुके हैं। इससे प्रभावित किसान का सर्वनाश हो जाता है। सरकार के पास इस विपदा के लिए कोई क्षतिपूर्ति करने या मुआवजे देने की कोई योजना नहीं है। यानी कुछ लोगों के एजेंडे का सीधा शिकार मासूम किसान हो रहे हैं। यह समस्या इतनी विकराल हो चुकी है कि हरियाणा और उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनावों में यह एक बड़ा मुद्दा बन चुके थे। उत्तरप्रदेश के हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस समस्या से निजात दिलाने का आश्वासन देना पड़ा था। अगर यह समस्या समय पर नहीं सुलझाई गई तो यह आने वाले समय में निश्चित रूप से एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन सकती है।

गुजरात राज्य विधानसभा ने भी इस साल अप्रैल 2022 में शहरी इलाकों में गुजरात मवेशी नियंत्रण विधेयक पारित किया, जिसमें पशुपालकों को शहरों में ऐसे पशुओं को रखने के लिए लाइसेंस लेने की आवश्यकता होती है। लाइसेंस न लेने पर उन्हें जेल की सजा भी हो सकती है। इस विधेयक के खिलाफ गुजरात के गांधीनगर में सैकड़ों पशुपालकों ने महापंचायत की। सभी पशुपालकों ने मांग की है कि छुट्टा पशुओं पर विधेयक को निरस्त किया जाये। इस विधेयक के खिलाफ प्रदर्शन के बाद भारतीय जनता पार्टी की गुजरात इकाई के प्रमुख सीआर पाटिल को कहना पड़ा कि उन्होंने मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल से इस पर पुनर्विचार करने का अनुरोध किया है।


गोवंश बूचड़खानों पर आधारित अर्थशास्त्र

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 के लोकसभा चुनावों की अनेक रैलियों में बीफ के निर्यात का मामला उछालने के लिए अपने भाषणों में गुलाबी क्रांति का खुलकर जिक्र किया था। वे भारत सरकार द्वारा अनुमति प्राप्त बूचड़खानों में वैध तरीके से हो रहे गौवध पर बेहद चिंतित नजर आ रहे थे। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि देश में 2014 के मुकाबले इस समय बीफ का कारोबार और भी ज्यादा बढ़ चुका है।

आम धारणा है कि गौवध केवल बीफ के लिए होता है जो केवल खाने के काम आता है। लेकिन यह मामला इतना सीधा नहीं है। दरअसल, गाय और उसकी प्रजाति के शरीर के कई हिस्से, सींग से लेकर खुर तक कई तरह की दवाइयों, टेनिस के रैकेट, आग बुझाने के उपकरणों, चीनी मिट्टी के बर्तनों, सर्जरी के स्टिच, कपड़े और जूते-चप्पलों के उद्योगों समेत बहुत से प्रॉडक्ट बनाने में काम आते हैं।

मांस के मद में महज 30 प्रतिशत बीफ की खपत होती है, बाकी दूसरे मकसदों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। मसलन यह चमड़ा, जिलेटिन और साबुन तथा टूथपेस्ट उद्योगों के काम आता है। चमड़ा उद्योग में भारत की विश्व बाजार में करीब 5 प्रतिशत की हिस्सेदारी है। जिलेटिन केवल खाने में ही नहीं बल्कि फोटोग्राफी और दवाइयों के कैप्सूल के कोटिंग में भी काम आता है। साबुन और टूथपेस्ट में हड्डियों के चूरे का इस्तेमाल किया जाता है। रोचक बात है कि सींग के पाउडर का इस्तेमाल आग बुझाने के लिए किया जाता है। स्थिति यह है कि आज किसी भी औसत भारतीय की जिंदगी गाय-बछड़े और बैल के शरीर से बनने वाले उत्पादों के बिना नहीं चल सकती। गोहत्या पर पूर्ण पाबंदी से सिर्फ बीफ खाने वाले लोग ही प्रभावित नहीं होंगे, वे भी लपेटे में आएंगे जो कभी सपने में भी बीफ खाने की नहीं सोच सकते। इसकी समझ ज्यादातर गोहत्या पर रोक के पैरोकारों को नहीं है।

अगर निर्यात को देखा जाए तो एक आंकड़े के अनुसार भारत से 2014-15 में 24 लाख टन भैंस के मांस का निर्यात विएतनाम, मलेशिया, थाईलैंड और सऊदी अरब सहित 65 देशों में हुआ। सेंटर फॉर मानिटरिंग इंडियन इकोनॉमी का कहना है कि, यह दुनिया भर में कुल बीफ निर्यात का 23.5 प्रतिशत था। लगभग 30,000 करोड़ रु. मूल्य का यह निर्यात भारत के कुल निर्यात का 1 प्रतिशत था। 


गौरक्षक के नाम पर हो रही गुंडागर्दी

देश में आजकल गौरक्षा के नाम पर बहुत से गिरोह सक्रिय हैं जो अपने एरिया में आने जाने वाले ट्रकों व अन्य परिवहन के साधनों पर नजर रखते हैं। किसी भी ट्रक को कहीं भी रोक लेते हैं। गोरक्षा के नाम पर पूरे ट्रक की तलाशी लेते हैं। यदि किसी भी ट्रक में गाय, बैल, सांड, भैस या भैंसा पाये जाते हैं तो यह लोग अपने साथियों को सूचित कर बुला लेते हैं। जो एक बड़े समूह के रूप में आते हैं। फिर शुरू होता है इनकी सौदेबाजी का खेल। ये सीधे जान से मारने की धमकी देते हैं और पैसे की डिमांड करते हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि वाहन चालक या मालिक अगर अपने जानवरों की खरीद फरोख्त की रसीद दिखाता है तो ये गिरोह उसको नहीं मानते हैं। इन्होंने इस अवैध वसूली के रेट भी तय कर रखे हैं। ये ट्रक से पांच हजार रुपये से दस हजार रुपये और छोटे वाहन से दो से तीन हजार रुपये वसूल करते हैं। नहीं देने पर वाहन चालकों व मालिकों को मारपीट कर थानों में बंद करा देते हैं। 

कुछ समय पहले गौ रक्षकों की गुंडागर्दी को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने सीधे तौर पर राज्यों को जिम्मेदार ठहराया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा राज्य सरकारों को इस प्रभावी अंकुश लगाना चाहिए। कोर्ट ने कहा कानून और व्यवस्था का मामला पूरी तरह राज्य का विषय है। कोर्ट को केंद्र सरकार से इस बारे में नीति बनाने के लिए नहीं कहना चाहिए। शीर्ष कोर्ट ने कहा इस बारे में सीधे तौर पर राज्यों के लिए आदेश पारित किए जाएंगे।

कोर्ट का कहना है कि हमारे आदेश प्राथमिकता के आधार पर होंगे। गौ रक्षकों की गुंडागर्दी के शिकार लोगों को मुआवजा देने के मामले को अलग से डील किया जाना चाहिए। कोर्ट ने सभी राज्यों को टास्क फोर्स के गठन पर अपनी रिपोर्ट जमा करने को कहा है। सुप्रीम कोर्ट ने देशभर में बढ़ते कथित गोरक्षकों के तांडव पर रोक लगाने के लिए हर जिले में सीनियर पुलिस ऑफिसर तैनात करने का आदेश दिया था। ताकि इस तरह की हिंसा की घटनाओं को रोकने और इसे अंजाम देने वालों के खिलाफ प्रभावी कार्रवाई की जा सके। 


 चलते-चलते

नरेन्द्र मोदी ने बेशक 2014 के लोकसभा चुनाव में गोमांस के निर्यात को चुनावी मुद्दा बनाया था। बिहार के नवादा जिले में एक चुनावी रैली के दौरान मोदी ने गुलाबी क्रांति पर जबरदस्त हमला बोला था। लेकिन वे देश की जनता को यह बताना भूल गए कि गोमांस का विरोध करने वाली उनकी पार्टी भाजपा को वित्तीय वर्ष 2013-2014 में मीट कंपनियों से 250 करोड़ रुपये का चंदा मिल चुका था!

निर्वाचन आयोग की वित्तीय वर्ष 2013-2014 की रिपोर्ट के अनुसार भारतीय जनता पार्टी ने भैंस के मीट को निर्यात करने वाली कंपनियों से 250 करोड़ रुपये का दान प्राप्त किया। इन कंपनियों ने यह पैसा लोकसभा चुनाव के दौरान दिया। दान देने वाली कंपनियां फ्रिगोरिफिको अल्लाना लिमिटेड, फ्रिगिरियो कन्सवा अल्लाना  लिमिटेड, फ्रिगिरियो कन्सवा अल्लाना लिमिटेड और इंडाग्र फूड्स लिमिटेड थीं। इसके बाद साल 2014-2015 में भी फ्रिगोरिफिको अलाना लिमिटेड ने पार्टी फंड में 50 लाख रुपये जमा कराए। यह सारा लेन देन विजया बैंक के माध्यम से किया गया। गौरतलब है कि अलानसंस, भैंस मीट के निर्यात में एक अग्रणी कंपनी है। यह कंपनी मीट निर्यात बाजार में हलाल मीट के निर्यातक के रूप में सबसे बड़ी कम्पनी है!






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चौधरी चरणसिंह - एक सच्चा राष्ट्रवादी प्रधानमंत्री

आखिरकार छूट गए ओमप्रकाश चौटाला जेल से

किसानों का वो हमदर्द जिससे काँपती थीं सरकारें - महेंद्र सिंह टिकैत

एक भविष्यदृष्टा प्रधानमंत्री जिसने रखी डिजिटल इंडिया की नींव-राजीव गांधी

अलविदा चैम्पियन उड़न सिख

आखिर कितना उलटफेर कर पाएंगे ओमप्रकाश चौटाला

12 जून 1975 को ही पड़ गई थी इमरजेंसी की नींव

राजस्थान के कद्दावर नेता कुम्भाराम आर्य