राजस्थान : भाजपा ही सबसे बड़ी चुनौती है भाजपा के सामने

राजस्थान नाम में राजपुताना शब्द की झलक दिखाई देती है और राजपुताना शब्द में राजा शब्द बेहद महत्वपूर्ण है। राजस्थान में राजा-महाराजाओं के युग का बेशक अंत हो गया हो लेकिन इस प्रदेश की भाजपा इकाई में यह फैक्टर बेहद स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। यह फैक्टर है धौलपुर राजघराने की महारानी वसुंधरा राजे सिंधिया!

भाजपा बेशक यह कह रही हो कि उसने देश भर में बरसों से महत्वपूर्ण राजनीतिक घरानों और राजाओं, महाराजाओं और सामंतों की बादशाहत  खत्म कर दी हो लेकिन राजस्थान अभी तक इसका अपवाद नजर आता है। वसुंधरा राजे सिंधिया जो चाहती हैं वो करती हैं और उनका मन चाहे तो वे आलाकमान को ठेंगा दिखाने की कुव्वत रखती हैं। मोदी और शाह की जोड़ी को राजस्थान में अपनी परंपरागत विरोधी पार्टी कांग्रेस की चुनौती से तो निपटना पड़ ही रहा है, साथ ही, वसुंधरा राजे सिंधिया को कैसे काबू में रखा जाए यह भी उनके लिए बहुत बड़ी उलझन है।

घटना, वर्ष 2009 के अगस्त माह के अंतिम सप्ताह की है। भाजपा नेतृत्व ने राजस्थान में पहले विधानसभा और फिर लोकसभा चुनाव में पार्टी की हार का हवाला देते हुए वसुंधरा राजे को नेता प्रतिपक्ष के पद छोड़ने की हिदायत दे दी। लेकिन वसुंधरा राजे और उनके समर्थकों ने विधायक दल में अपने भारी बहुमत की दुहाई देते हुए पद छोड़ने से इनकार कर दिया। सबसे हैरतअंगेज बात यह रही कि वसुंधरा राजे ने जबरदस्त पलटवार करते हुए यह कह दिया कि अगर राजस्थान में हार का ठीकरा उन पर फोड़ कर उनसे नेता प्रतिपक्ष का पद छीना जा रहा है तो यही कार्यवाही लालकृष्ण आडवाणी पर क्यों नहीं की जा रही। क्योंकि भाजपा ने पूरे देश में लोकसभा चुनाव उनके नेतृत्व में लड़ा था और पार्टी को लोकसभा चुनाव में शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा, उसके बावजूद वे लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष पर बने हुए हैं। वसुंधरा राजे के इस पैंतरे से भाजपा आलाकमान सन्न रह गया। लालकृष्ण आडवाणी की उस समय भाजपा में तूती बोलती थी, क्योंकि अटलबिहारी वाजपेयी अस्वस्थ हो चुके थे और नरेन्द्र मोदी का केंद्रीय स्तर पर प्रादुर्भाव नहीं हुआ था, किसी और नेता की इतनी हैसियत नहीं थी कि वो आडवाणी की बराबरी कर सके। ऐसे में एक प्रादेशिक क्षत्रप के द्वारा इस तरह के व्यवहार की कल्पना करना असंभव सा था। लेकिन, वसुंधरा राजे के तर्क में वजन था अतः आलाकमान द्वारा इसे रफादफा करना इतना आसान नहीं था।

भाजपा के लिए सबसे बुरा यह हुआ कि वसुंधरा राजे और आलाकमान की यह लड़ाई सार्वजनिक हो गई और उस समय के सभी अखबारों और न्यूज चैनलों की सबसे बड़ी खबर यह बन गई कि महारानी नेता प्रतिपक्ष के पद से इस्तीफा कब दे रही हैं। उधर, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बेशक राजनाथ सिंह थे लेकिन लालकृष्ण आडवाणी की लौह पुरुष की छवि के सामने बहुत बड़ी चुनौती आन खड़ी हुई। 


महारानी इस्तीफा न देने पर अड़ गई, इस दौरान भाजपा आलाकमान ने वसुंधरा राजे के दो सबसे वफादार विधायकों, राजेंद्र राठौर और ज्ञानदेव आहूजा को निलंबत कर दिया। इसके बाद तो वसुंधरा राजे और भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के बीच विवाद इतना बढ़ा कि वसुंधरा राजे के खेमे के विधायकों ने दिल्ली में जाकर अपनी ताक़त का प्रदर्शन किया। वसुंधरा राजे ने दलबल के साथ आडवाणी और राजनाथ सिंह के सामने अपना पक्ष रखा, मगर बात नहीं बनी।

वसुंधरा राजे ने पार्टी आलाकमान के सामने अपने इस्तीफ़े के साथ कुछ शर्तें रख दीं। इनमें विधायक दल का नया नेता उनकी इच्छा से बनाने, पार्टी के दो निलंबित विधायकों को तुंरत बहाल करने और राज्य की राजनीति से उन्हें जोड़े रखने की शर्तें मुख्य थीं। लेकिन आलाकमान इन शर्तों को मानने को तैयार नहीं हुआ।

यह खींचतान पूरे तीन महीने चली और इसने तत्कालीन भाजपा के अंतर्विरोधों को पूरी तरह सार्वजनिक कर दिया। भाजपा आलाकमान को इतना बेबस कभी नहीं देखा गया। आखिरकार आलाकमान की खूब किरकिरी करके वसुंधरा राजे इस्तीफा देने को राजी हो गई। लेकिन उन्होंने इसके साथ एक पत्र लिखकर पार्टी आलाकमान पर उन्हें अपमानित करने और पार्टी में लोकतंत्र की कमी होने का आरोप लगा दिया। भाजपा के संसदीय बोर्ड को लिखे इस पत्र में उन्होंने पार्टी आलाकमान पर मीडिया के जरिए उनके साथ गलत व्यवहार कर उन्हें अपमानित करने का आरोप लगाया और कहा कि पार्टी के कामकाज में लोकतंत्र की कमी है व कोई जवाबदेही नहीं है। उन्होंने यह भी आरोप लगा दिया कि पार्टी ने पार्टी में महिलाओं के उत्थान को प्रोत्साहित नहीं किया। लेकिन तीन महीनों में भाजपा आलाकमान इतने बैकफुट पर आ चुका था कि उसने इस बारे में चुप रहने में ही अपनी भलाई समझी।

इसके बाद 2012 में महारानी एक बार भाजपा आलाकमान से फिर भिड़ गई। इस बार राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी थे। वसुंधरा राजे चाहती थी कि उन्हें अगला मुख्यमंत्री घोषित किया जाए और अगला चुनाव उनके नेतृत्व में ही लड़ा जाए, प्रदेश संगठन में फेरबदल किया जाए। इसके साथ ही एक बात यह भी हो गई कि राजस्थान भाजपा के एक अन्य कद्दावर नेता गुलाब चंद कटारिया ने प्रदेश में जनजागरण यात्रा निकालने की घोषणा कर दी। इसके विरोध में वसुंधरा राजे के समर्थन में दो निर्दलीयों सहित भाजपा के 58 विधायकों ने इस्तीफे दे दिए और अपनी बात मनवाने के लिए पार्टी नेतृत्व पर दबाव बढ़ा दिया। प्रदेशभर से 2700 कार्यकर्ताओं व नेताओं ने वसुंधरा के समर्थन में इस्तीफे दे दिए। दरअसल कटारिया की जनजागरण यात्रा के मुद्दे पर प्रदेश मुख्यालय में कोर कमेटी की बैठक के दौरान राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी का फोन आने से वसुंधरा राजे बिफर पड़ी थीं। वे बैठक से बाहर आ गईं और मीडिया में आकर कहा कि अगर वे कार्यकर्ताओं की बात पार्टी के सामने नहीं रख पा रही हैं, इसलिए उन्हें लगता है कि पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे देना चाहिए!


भाजपा आलाकमान को फिर से महारानी के सामने घुटने टेकने पड़ गए।

दरअसल, ये दोनों घटनाएं लिखने का उद्देश्य यह है कि राजस्थान, भाजपा आलाकमान के लिए बिगड़ैल सांड की तरह है। यहाँ, भाजपा में वसुंधरा राजे की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। भाजपा के सामने राजस्थान में वसुंधरा राजे से भी बड़ी चुनौती और कोई नहीं दिखाई देती। भाजपा आलाकमान राजस्थान में कांग्रेस से तो पार पा सकता है मगर फिलहाल उसके पास वसुंधरा राजे का तोड़ नहीं है।

वैसे, राजस्थान भाजपा में दो खेमे दिखाई देते हैं, एक खेमे का नेतृत्व प्रदेश पार्टी अध्यक्ष सतीश पूनिया और दूसरे का नेतृत्व वसुंधरा राजे कर रही हैं। दोनों में मनमुटाव जगजाहिर है। हाल ही में राजस्थान भाजपा मुख्यालय के बाहर लगे पोस्टरों और बैनरों से राजे की तस्वीरें हटा दी गईं थी, जिससे राजे खेमा नाराज हो गया था,  राजे चुप रहीं, मगर जब उनके एक वफादार रोहिताश्व शर्मा को छह साल के लिए पार्टी से निष्कासित कर दिया गया तो उन्होंने पहली बार पोस्टर विवाद पर पलटवार करते हुए कहा कि मैं पोस्टर की राजनीति में विश्वास नहीं करती, लेकिन लोगों के दिलों पर राज करना और बसना चाहती हूँ। जाहिर है कि राजस्थान भाजपा के अंदर सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है।

महाराष्ट्र प्रकरण से उत्साहित लेकिन बिहार के बाद ठिठकी भाजपा

पहले कर्नाटक फिर मध्यप्रदेश और हाल ही में महाराष्ट्र में कांग्रेस को पटखनी देकर भाजपा आलाकमान को जोश हिलोरे मार रहा था। अगला टारगेट राजस्थान में तख्तापलट का लग रहा था। कुछ समय पहले यहाँ सचिन पायलट खेमे को उकसा कर ऑपरेशन लोटस को अंजाम देने की कोशिश की गई थी लेकिन अशोक गहलोत ने डैमेज कंट्रोल कर लिया था।

वैसे तो राजस्थान में भाजपा और कांग्रेस के विधायकों के संख्याबल में काफी बड़ा फासला है। गहलोत ने हाल ही में हुए राज्यसभा चुनावों में कुछ भाजपा विधायकों द्वारा क्रॉस वोटिंग करवा कर इस फासले को और ज्यादा बढ़ा दिया गया।

लेकिन जिस तरह बिहार में नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ चल रहे अपने गठबंधन को अचानक झटका दिया है उससे भाजपा हतप्रभ हो गई है। इससे भाजपा की मिशन राजस्थान की योजना पर भी ब्रेक लग गए हैं। सचिन पायलट ग्रुप भी खामोश दिखाई दे रहा है। लेकिन राजनीति में कब क्या हो जाये, कुछ कहा नहीं जा सकता, यही तो असल राजनीति है! यह भी हो सकता है कि बिहार में चोट खाई भाजपा किसी दूसरे विपक्ष नीत राज्य में खेला कर दे!

2023 के लिए कमर कस रही है भाजपा

राजस्थान में 2023 में होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर बीजेपी ने युद्धस्तर पर तैयारियां शुरू कर दी हैं। राज्य में भाजपा के बड़े नेताओं के धुआँधार दौरे इसी ओर इशारा कर रहे हैं। पिछले महीने 9 जुलाई को केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के जयपुर दौरे के बाद 12 जुलाई को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा राजस्थान ने दौरा किया। नड्डा माउंट आबू में भाजपा प्रशिक्षण वर्ग के समापन सत्र में शामिल हुए जो 10 से 12 जुलाई के बीच माउंट आबू में चला। इसमें प्रदेश पदाधिकारी, जिला अध्यक्ष, जिलों के प्रभारी, भाजपा के मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष के साथ ही विभाग और प्रकोष्ठों के  प्रदेश संयोजक मौजूद रहे। इसमें राजस्थान में सत्ता प्राप्ति के तरीकों पर मंथन किया गया।

भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का 12 जुलाई  माउंट आबू का प्रोग्राम इतना महत्वपूर्ण था कि इसके चलते एनडीए राष्ट्रपति पद की प्रत्याशी द्रौपदी मुर्मू के जयपुर दौरे में भी बदलाव कर दिया गया। मुर्मू का 12 जुलाई को जयपुर में आने का कार्यक्रम था, लेकिन इसे बदलकर 13 जुलाई कर दिया गया। 

भाजपा के केंद्रीय नेता लगातार राजस्थान में प्रवास और दौरा कर स्थानीय इकाई को मजबूती देने में जुटे हैं। इसके साथ ही राजस्थान से जुड़े प्रमुख नेताओं के बीच चल रहे मनमुटाव और गतिरोध को दूर करने पर भी काम किया जा रहा है, ताकि मिशन 2023 में यह गुटबाजी रोड़ा ना बने।

साम्प्रदायिक दंगों से किसको होगा  लाभ और किसको नुकसान?

अक्सर बेहद शांत रहने वाले राजस्थान प्रदेश में पिछले 3 साल में 7 बड़े साम्प्रदायिक दंगे हुए हैं, महत्वपूर्ण बात यह है कि आखिरी तीन दंगे केवल 32 दिनों के अंतराल में ही हुए हैं। आंकड़ों के अनुसार 8 अप्रैल 2019 को टोंक में, 24 सितंबर 2020 डूंगरपुर में, 11 अप्रैल 2021 बारां में, 19 जुलाई 2021 झालावाड़ में और इस साल 2 अप्रैल 2022 करौली में, 2 मई 2022 को जोधपुर के जालोरी गेट चौराहे पर व 4 मई को भीलवाड़ा के सांगानेर में हिंसा व साम्प्रदायिक तनाव हुए। गौरतलब है कि अंतिम तीन दंगे, करौली, जोधपुर और भीलवाड़ा में महज 32 दिन के अंतराल में हो गए!

क्या ये संयोग है या प्रयोग, इस बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। लेकिन राजस्थान में अगले साल 2023 के अंत में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं तो इन घटनाओं पर ध्यान जाना स्वाभाविक है। वजह यह है कि साम्प्रदायिक हिंसा और साम्प्रदायिक तनाव वोटों के ध्रुवीकरण के लिए सबसे आसान तरीके हैं। लगता है कि ये सिलसिला अब थमने वाला नहीं है। हालिया तीनों साम्प्रदायिक घटनाओं का विश्लेषण तो यही कहता है कि ये सामान्य घटनाएं तो कतई नहीं हैं। 

जाहिर सी बात है कि विपक्ष इन्हें मुद्दा बनाएगा और प्रदेश में लचर कानून-व्यवस्था का आरोप लगाएगा, उधर राज्य सरकार की मुस्तेदी पर जनता अपना मानस बनाती है।

कन्हैयालाल मर्डर केस में बैकफुट पर आई भाजपा

हाल ही में 28 जून को राजस्थान के उदयपुर में कन्हैयालाल नामक एक टेलर की दो युवकों ने गला काट कर हत्या कर दी थी। कन्हैया लाल ने पिछले दिनों पैगंबर मोहम्मद के खिलाफ कथित आपत्तिजनक टिप्पणी करने के आरोप में भाजपा से निलंबित की गई तत्कालीन पार्टी प्रवक्ता नूपुर शर्मा के समर्थन में सोशल मीडिया पर पोस्ट डाली थी। हत्यारोपियों ने कन्हैयालाल का कत्ल करने के बाद बनाए गए वीडियो में वारदात की जिम्मेदारी ली थी। लेकिन दोनों आरोपियों को राजस्थान पुलिस ने तुरंत ही गिरफ्तार कर लिया। उसके बाद उदयपुर समेत पूरे राजस्थान में तनाव फैल गया था। देशभर में इस हत्याकांड को लेकर तीखी प्रतिक्रियायें सामने आई थी। राजस्थान में माहौल बिगड़ने की आशंका के चलते उसी दिन प्रदेशभर में इंटरनेट बंद करके धारा-144 लगा दी गई थी। उसके बाद से ही इस मामले में बीजेपी और कांग्रेस एक दूसरे पर हमलावर हो रखी है। बेशक राजस्थान पुलिस ने दोनों आरोपियों को फौरन गिरफ्तार कर लिया मगर केंद्र सरकार ने कुछ ज्यादा ही सक्रियता दिखाते हुए इस हत्याकांड की जांच एनआईए को सौंप दी। साथ ही भाजपा ने इसे साम्प्रदायिक रंग देने का प्रयास किया।

उधर, राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भाजपा पर निशाना साधकर कहा कि भाजपा नेताओं को इस हत्या के अभियुक्त के उनकी पार्टी के साथ संबंध होने के आरोपों पर अपना रुख स्पष्ट करना चाहिए। गहलोत ने इस हत्याकांड के मुख्य अभियुक्त रियाज मोहम्मद के भाजपा नेताओं के साथ कथित संबंधों की मीडिया रिपोर्ट की ओर इशारा करते हुए पत्रकारों से कहा कि हत्याकांड के मुख्य अभियुक्त के किनसे संबंध हैं... उसके भाजपा के साथ किस रूप में और किस स्तर के संबंध रहे हैं, सबको यह मालूम है। इस हत्या के आरोपियों के भाजपा नेताओं के साथ कुछ फोटो सोशल मीडिया पर भी वायरल हो गए।

भाजपा इस पलटवार से सहम गई और धीरे-धीरे यह मुद्दा नेपथ्य में चला गया।

मुर्मू के सहारे राजस्थान के आदिवासियों को साधने की कवायद

भाजपा ने राजस्थान के पांच आदिवासी विधायकों फूल सिंह मीणा, अमृत लाल मीणा, बाबूलाल खराड़ी, समाराम गरासिया और कैलाश मीणा व उदयपुर सांसद अर्जुन लाल मीणा को राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार मुर्मू का प्रस्तावक बनाया।

इसकी वजह यह है कि राजस्थान में साल 2023 के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं और भाजपा यहां आदिवासी सीटों पर ज्यादा मजबूत नहीं है। अतः वह राजस्थान की सत्ता में वापसी के लिए आदिवासी वोट बैंक पर नजरें जमाये हुए है, 200 सदस्यों वाली राजस्थान विधानसभा में अभी कुल 33 विधायक आदिवासी हैं। वैसे तो आदिवासी समाज यानी एसटी की राजस्थान में कुल 25 सीटें रिजर्व हैं लेकिन पिछले चुनाव में सामान्य वर्ग की आठ सीटों पर भी आदिवासी समाज के प्रत्याशी जीत गए थे। इन 33 में से कांग्रेस के 17 और बीजेपी के 9 विधायक हैं अन्य जीते हुए आदिवासी विधायकों की संख्या सात है। चूँकि भाजपा राजस्थान के आदिवासी इलाकों में कमजोर है इसलिए उसने द्रोपदी मुर्मू का सहारा लेकर इनमें घुसपैठ की कोशिश की है।

चलते-चलते
पलटीमारों की राजस्थान में भी कमी नहीं है।

2019 के लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी (आरएलपी) के संयोजक हनुमान बेनीवाल ने भाजपा से चुनावी समझौता कर लिया। मजेदार बात यह रही कि कांग्रेस की बेनीवाल से बातचीत चल रही थी, लेकिन वो भाजपा के पाले में जा बैठे! राज्य में तीसरा विकल्प देने की रट लगाने वाले बेनीवाल ने इस पर सफाई दी कि उन्होंने राष्ट्रहित के मुद्दे पर भाजपा से गठबंधन किया है।

मजेदार बात यह है कि दिसम्बर 2020 में तीन कृषि कानूनों के मुद्दे पर उन्होंने भाजपा से अपना समर्थन वापस ले लिया। फिर उन्होंने केंद्र की अग्निवीर योजना का भी काफी विरोध किया।

मगर जल्द ही राज्यसभा चुनावों में हनुमान की पार्टी ने भाजपा समर्थित उम्मीदवार का समर्थन करके लोगों को हैरान कर दिया।

महत्वपूर्ण बात यह है कि सूबे की भाजपा की सबसे मजबूत नेत्री व पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने हनुमान बेनीवाल से दूरी बनाए रखी है। इससे इन दोनों में नाराजगी के कयास लगाए जा रहे हैं। देखना दिलचस्प रहेगा कि 2023 के विधानसभा चुनावों में हनुमान भाजपा के संकटमोचक बनते हैं या अवरोधक! फिलहाल उनकी पार्टी के तीन विधायक हैं। वैसे राजे के साथ मनमुटाव होने के बावजूद हनुमान का भाजपा प्रेम छुपा हुआ नहीं है।




टिप्पणियाँ

Topics

ज़्यादा दिखाएं

Share your views

नाम

ईमेल *

संदेश *

Trending

नींव रखी नई औद्योगिक क्रांति की पर कहलाया किसान नेता

अहलावत जाट और दो लाख की खाट : ठाठ ही ठाठ

चौधरी चरणसिंह - एक सच्चा राष्ट्रवादी प्रधानमंत्री

आखिरकार छूट गए ओमप्रकाश चौटाला जेल से

किसानों का वो हमदर्द जिससे काँपती थीं सरकारें - महेंद्र सिंह टिकैत

एक भविष्यदृष्टा प्रधानमंत्री जिसने रखी डिजिटल इंडिया की नींव-राजीव गांधी

अलविदा चैम्पियन उड़न सिख

आखिर कितना उलटफेर कर पाएंगे ओमप्रकाश चौटाला

12 जून 1975 को ही पड़ गई थी इमरजेंसी की नींव

राजस्थान के कद्दावर नेता कुम्भाराम आर्य