क्या भाजपा का दक्षिण अभियान नया इतिहास रचेगा?
भारत के स्कूलों में देश के मध्यकालीन इतिहास के अंत और आधुनिक इतिहास की शुरुआत में महान मुगल वंश के पतन के बारे में पढ़ाया जाता है। मुगल वंश के पतन के मुख्य कारणों में एक कारण यह भी है कि औरंगजेब ने अपने दक्षिण के सैन्य अभियानों पर व्यापक मात्रा में धन और जन को नष्ट किया साथ ही दक्षिणी सैन्य अभियानों में व्यस्तता के कारण वह उत्तर भारत की ओर ध्यान नहीं दे सका, जो कालांतर में मुगल साम्राज्य के पतन का कारण बना। अब पिछले आठ साल से देश की सत्ता में लगातार मजबूती से सत्तासीन भाजपा ने भी हैदराबाद अधिवेशन से अपने मिशन दक्षिण को परवान चढ़ाने की कवायद शुरू कर दी है। देखना दिलचस्प रहेगा कि दक्षिण भारत भाजपा के लिए मुगल साम्राज्य की तरह चुनौती साबित होगा या नरेन्द्र मोदी और अमित शाह का अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा यहाँ भी अपनी विजय पताका फहराने में सफल हो पायेगा। यह जानना भी दिलचस्प है कि मुगलों की दक्षिण नीति औरंगज़ेब के शासन के दौरान इसकी सफलता की पूर्णता तक पहुँच गई लेकिन यह सफलता अस्थायी थी। औरंगजेब अपनी सफलता को मजबूत करने में असफल रहा। औरंगजेब द्वारा दक्षिण की विजय ने मुगल साम्राज्य की सीमा को इतने विस्तार से बढ़ाया कि एक जगह से इसे संभालना असंभव हो गया। भारतीय इतिहास ने कई बार यह साबित किया था कि उत्तर के शासकों द्वारा दक्षिण को फतेह करने का प्रयास हर बार विफल रहा।
खैर हम मुगलों व अन्य शासकों और भाजपा की तुलना करके ज्यादा पचड़े में नहीं पड़ते कि क्या भाजपा अपने मिशन में सफल रहेगी या असफल। हम इस रिपोर्ट में भाजपा के अब तक और भविष्य की योजनाओं की तथ्यात्मक विवेचना करेंगे कि दक्षिण भारत की राजनीति में भगवा रंग कौन सी करवट लेने की सोच रहा है। वैसे भी मुगलों से लेकर अब तक समय और परिस्थितियों में आमूल-चूल परिवर्तन आ चुका है।
आइये थोड़ा फ्लैश बैक में चलते हैं। वर्ष 1967 में भारतीय जनसंघ (वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी) ने अपना एक राष्ट्रीय अधिवेशन केरल राज्य के शहर कालीकट में किया था और इसमें दीनदयाल उपाध्याय अध्यक्ष चुने गये थे। उपाध्याय का सपना था कि जनसंघ वास्तव में एक राष्ट्रीय दल बनकर कांग्रेस का ठोस विकल्प बनकर उभरे। इसके लिए जनसंघ की स्वीकार्यता का दायरा भी भारत की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप बढ़ाया जाना जरूरी था। इसी प्रयास को सफल करने हेतु दीनदयाल उपाध्याय ने जनसंघ का राष्ट्रीय सम्मेलन दक्षिण के कालीकट में आयोजित करवाया।
37 साल बाद इसके परिणाम दृष्टिगोचर हुए। भाजपा ने 2004 में कर्नाटक के राज्य विधानसभा चुनावों में धमाकेदार प्रदर्शन किया, उसने राज्य की कुल 224 विधानसभा सीटों पर हुए चुनाव में 79 सीटों पर जीत दर्ज की, जबकि कांग्रेस को 65 और जनता दल सेक्यूलर को 58 सीटों पर संतोष करना पड़ा।
इस चुनाव में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर तो उभरी लेकिन सरकार बनाने के लिए जरूरी जादुई आंकड़े से काफी पीछे रह गई। अतः कांग्रेस और जनता दल सेक्यूलर ने गठबंधन कर सरकार बना ली।
भाजपा के लिए दक्षिण से सबसे शानदार समाचार 12 नवंबर 2007 को आया जब भाजपा के बीएस येदियुरप्पा कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने। लेकिन यह खुशी ज्यादा दिन नहीं टिक पाई और 20 नवंबर 2007 को यहाँ राष्ट्रपति शासन लग गया। मगर 30 मई 2008 को बीएस येदियुरप्पा फिर से मुख्यमंत्री बन गए। इसके बाद 4 अगस्त 2011 को भाजपा के डीवी सदानन्द गौड़ा और फिर 12 जुलाई 2012 को भाजपा के जगदीश शेट्टार मुख्यमंत्री बनाये गए।
इसके पश्चात 2018 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में बीजेपी 104 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, लेकिन बहुमत के आंकड़े से 9 सीटें पिछड़ गई। कांग्रेस (80 सीट) और जेडी(एस) (37 सीट) ने तुरंत गठबंधन की घोषणा कर दी। लेकिन प्रदेश के राज्यपाल वजुभाई वाला ने येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ लेने के लिए आमंत्रित कर लिया। 17 मई, 2018 को येदियुरप्पा ने मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ले ली। मगर 19 मई को येदियुरप्पा ने नाटकीय अंदाज में इस्तीफा दे दिया, क्योंकि वह विश्वास मत साबित करने में नाकाम रहे। लेकिन, कुछ समय बाद बागी विधायकों के इस्तीफे की वजह से कर्नाटक में सत्तारूढ़ कुमारस्वामी सरकार के गिरने का रास्ता साफ हो गया। इसके बाद येदियुरप्पा ने 26 जुलाई, 2019 के फिर से मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।
कहने का मतलब है कि दक्षिण भारत में भाजपा का इस समय सबसे मजबूत दुर्ग कर्नाटक है।
दक्षिण की राजनीति में यह बहुत बड़ा बदलाव है क्योंकि उत्तर भारत की समझी जाने वाली भाजपा ने दक्षिण की गैर हिन्दी भाषी जमीन पर अपना परचम लहरा दिया था।
क्या भाजपा का अस्तित्व 30-40 वर्षों का है
तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक के बाद केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 3 जुलाई 2022 को दावा किया कि अगले 30-40 वर्षों तक भारतीय जनता पार्टी का युग रहेगा और भारत विश्वगुरु बनेगा। उन्होंने यह भी कहा कि तेलंगाना और पश्चिम बंगाल सहित उन सभी राज्यों में भी भाजपा की सरकारें बनेंगी, जहां पार्टी अभी तक सत्ता से दूर है। इस व्यक्तव्य के दो मायने निकल कर आते हैं पहला तो यह कि भाजपा अपने मिशन दक्षिण के लिए बेहद गम्भीर है और दूसरा यह कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को भी यह पता है कोई भी सफलता चिरस्थाई नहीं होती। शाह ने इशारा कर दिया है कि देश में भाजपा युग आगामी 30 से 40 साल तक ही रहेगा। इससे पार्टी के उन समर्थकों को चेत जाना चाहिए जो सोच बैठे हैं कि भाजपा अनन्तकाल तक राज करने वाली है।
खैर फिर से असल मुद्दे पर आते हैं।
दरअसल पार्टी जानती है कि भाजपा के लिए उत्तर भारत में जो राजनीतिक नैरेटिव काम करता है, वो नैरेटिव दक्षिण भारत के केरल और तमिलनाडु में उतना कारगर नहीं है।
तमिलनाडु और केरल में बीजेपी के सामने विचारधारा से जुड़ी काफी चुनौतियां है। मगर तेलंगाना में भाजपा को लग रहा है कि वह सत्ता की सीढ़ियां चढ़ सकती है।
साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने तेलंगाना की 17 में से चार लोकसभा सीटें जीतकर सबको चौंका दिया। क्योंकि इससे सिर्फ एक साल पहले तेलंगाना में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा को सिर्फ एक सीट पर जीत मिली थी और अधिकांश सीटों पर भाजपा उम्मीदवारों की जमानतें जब्त हो गई थीं। लेकिन नवंबर 2020 में दुब्बका विधानसभा उपचुनाव में भाजपा को पता चल गया कि तेलंगाना में सत्तारूढ़ के. चंद्रशेखर राव के नेतृत्व वाली तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) की सरकार सत्ता-विरोधी लहर का सामना कर रही है। दरअसल दुब्बका विधानसभा उन तीन विधानसभाओं से घिरी है जिनसे मुख्यमंत्री केसीआर, टीआरएस के दूसरे नंबर के नेता केटी रामा राव और मुख्यमंत्री के बेटे हरीश राव चुनकर आते हैं। अतः माना जा रहा था कि इस सीट से टीआरएस को जीत मिलेगी। लेकिन हैरतअंगेज रूप से भाजपा ने यह सीट जीत ली जिससे भाजपा आलाकमान को दक्षिण भारत के इस राज्य में जीत की खुशबू आने लगी। इसके कुछ समय पश्चात ग्रेटर हैदराबाद म्युनिसिपल कॉरपोरेशन का चुनाव हुआ इसमें भाजपा ने अपने तमाम संसाधन झौंक दिए और भाजपा इसमें मुख्य विपक्षी पार्टी बनकर उभरी।
तेलंगाना में भाजपा के लिए अपनी जगह बनाने की संभावनाएं टीआरएस की असफ़लताओं से बनी हैं। युवा और छात्र काफी निराश हैं, सरकारी शिक्षा व्यवस्था कमजोर पड़ने की वजह से यहाँ आरएसएस से जुड़े स्कूल भी फल-फूल रहे हैं। हालांकि तेलंगाना के पिछले चुनाव में भाजपा ने 18 प्रतिशत वोट हासिल किए थे लेकिन उसे सत्ता में आने के लिए चालीस प्रतिशत वोटों की ज़रूरत है जो एक बेहद कठिन काम है। फिलहाल यहाँ इस समय दूसरे स्थान के लिए कांग्रेस और बीजेपी में कांटे की टक्कर चल रही है।
मगर बहुत मुश्किल है डगर तमिलनाडु की
तेलंगाना में बेशक भाजपा कुछ अच्छी स्थिति में दिखाई दे रही हो लेकिन तमिलनाडु में अभी पार्टी के पास करने को कुछ ज्यादा नहीं है। हालांकि भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष के. अन्नामलई भीड़ तो जुटाने लगे हैं मगर वह नाकाफी है।
यहाँ भाजपा तीसरे स्थान पर कब्जा करने के लिए जद्दोजहद करती दिखाई दे रही है।
यहाँ उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती द्रविड़ आंदोलन की वजह से तमिलनाडु में पनपी वैचारिक ज़मीन है। भाजपा की तमिलनाडु की राजनीति की सबसे दिलचस्प बात यह है कि वह वहाँ दुश्मनों की जगह अपने सहयोगियों को पहले ख़त्म करने की रणनीति पर चल रही है। इसकी वजह है कि इस तरह उसे सत्तारूढ़ पार्टी डीएमके के सामने मुख्य विपक्षी पार्टी बनने में मदद मिलेगी। भाजपा तमिलनाडु में भ्रष्टाचार और वंशवाद पर चर्चा कर रही है।
भाजपा का यहाँ आधार पश्चिमी तमिलनाडु (कोयंबटूर) में हैं जहां अन्ना डीएमके का भी प्रभाव है। भाजपा और अन्ना डीएमके गठबंधन ने पिछले विधानसभा चुनाव में इस क्षेत्र में 76 में से 56 सीटों पर जीत हासिल की थी।लेकिन कुल मिलाकर भाजपा तमिलनाडु में फिलहाल कोई गम्भीर चुनौती दिखाई नहीं दे रही।
1967 के कालीकट वाले केरल में भाजपा
तमिलनाडु के पड़ोस में केरल में भी सामाजिक और आर्थिक परंपराओं ने एक ऐसी वैचारिक ज़मीन तैयार की है जिसमें भाजपा के लिए सेंध लगाना एक चुनौती है। यहाँ डीएमके 15 पार्टियों का गठजोड़ बनाकर सत्ता में है, इन पार्टियों में कांग्रेस, वामपंथी दल और वीसीके आदि शामिल हैं। यहाँ भाजपा भीड़ तो जुटा रही है लेकिन लगता नहीं कि वह निकट भविष्य में वह यहाँ कामयाब हो पाएगी। केरल में सीपीएम के नेतृत्व में लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट बेहद मजबूत है और यहाँ कांग्रेस की स्थिति भी मजबूत है। केरल में सत्ता सीपीएम और कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधनों के बीच घूम रही है, भाजपा को केरल में कोई करिश्मा ही सत्ता के नजदीक ला सकता है। भाजपा को यहाँ कोई नया और खास नैरेटिव लाना होगा।
राज्यसभा के बहाने दक्षिण को साधने की कोशिश
भाजपा सरकार ने 6 जुलाई 2022 को जानी-मानी एथलीट पीटी ऊषा, संगीतकार इलैयाराजा, समाजसेवी वीरेंद्र हेगड़े और मशहूर स्क्रीनराइटर व डायरेक्टर वी. विजयेंद्र प्रसाद को राज्यसभा के लिए मनोनीत किया। वैसे तो ये चारों अलग-अलग क्षेत्रों के महारथी हैं पर इन चारों में एक बात समान है वह है ये चारों ही दक्षिण भारतीय हैं। पीटी ऊषा केरल से, इलैयाराजा तमिलनाडु से, वीर हेगड़े कर्नाटक से और वी. विजयेंद्र प्रसाद आंध्र प्रदेश से हैं। इन चार चेहरों के सहारे भाजपा दक्षिण भारत के पाँच राज्यों कर्नाटक, केरल, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और तेलंगाना में अपनी पैठ जमाना चाह रही है। इसे भाजपा के दक्षिण भारत विजय अभियान की कड़ी में देखा जा रहा है।
कर्नाटक, केरल, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और तेलंगाना में लोकसभा की 129 सीटें हैं, 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा इनमें से केवल 30 सीट जीत पाई थी। महत्वपूर्ण बात यह है कि इन 30 में से भी 26 सीटें (भाजपा समर्थित एक निर्दलीय सांसद समेत) अकेले कर्नाटक से हैं। भाजपा को लगता है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में इन राज्यों की भूमिका बड़ी अहम रहेगी।
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने भाजपा अध्यक्ष पद के दौरान ही 'मिशन साउथ' की रणनीति तैयार की थी। उसी रणनीति को जेपी नड्डा अब अमलीजामा पहना रहे हैं। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा इस मिशन साउथ को लीड कर रहे हैं। हैदराबाद में हाल ही हुई भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक भी पार्टी के इसी मिशन का हिस्सा थी।
उत्तर भारत के सम्भावित नुकसान की भरपाई होगी ट्रिपल सी फार्मूले से
उत्तर भारत में भाजपा पिछले दो लोकसभा चुनावों में अपने चरम पर रही है। ऐसे में यदि एंटी इनकम्बेंसी फेक्टर के कारण उसे 2024 के लोकसभा चुनाव में इन राज्यों में नुकसान होगा तो उसकी योजना है कि इसकी भरपाई दक्षिण भारत से की है जाए।
इसके लिए ट्रिपल सी फार्मूले पर फोकस किया जा रहा है। ट्रिपल सी फार्मूले का मतलब है, कल्चरल नेशनलिज्म यानी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर जोर, करप्शन पर चोट और दक्षिण के लोगों के बीच अपनी क्रेडिबिलिटी (विश्वसनीयता) स्थापित करने की कोशिश। इसके तहत सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रतीकों को नए सिरे से उभारना, भ्रष्टाचार और परिवारवाद के मुद्दों पर क्षेत्रीय दलों को घेरकर अपनी विश्वसनीयता स्थापित करने का अभियान व लोकप्रिय हस्तियों को पार्टी से जोड़कर मतदाताओं के बीच अपनी विश्वसनीयता स्थापित करना शामिल है।
हैदराबाद में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक के तुरंत बाद केरल, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश की चार प्रमुख हस्तियों पी.टी. उषा, इलैयाराजा, वीरेंद्र हेगड़े और वी. विजयेंद्र प्रसाद को राज्यसभा के लिए मनोनीत किया जाना भी इसी योजना का हिस्सा है। इसके तहत भाजपा की ओर से यह संदेश देने की कोशिश की गई है कि वह एक राष्ट्रीय पार्टी है। अगर वह उत्तर भारत के राज्यों में जीत हासिल करती है तो इसका मतलब यह नहीं है कि उसकी सारी राजनीति वहीं केंद्रित है। वह दक्षिण का भी ध्यान रखती है ताकि भविष्य में उसे वहां भी राजनीतिक लाभ हासिल मिल सके।
चलते-चलते
तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक का उद्घाटन करने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 3 जुलाई 2022 को जब हैदराबाद एयरपोर्ट पहुंचे तो इस दौरान तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर उन्हें रिसीव करने नहीं पहुंचे। जबकि ये एक प्रोटोकाल है इसके तहत केसीआर को पीएम को रिसीव करने पहुंचना चाहिए था। जबकि इससे कुछ घण्टे पहले केसीआर विपक्ष की ओर से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा की अगवानी करते हुए पूरी कैबिनेट के साथ नजर आए। इससे पहले फरवरी 2022 में, प्रधानमंत्री हैदराबाद के नजदीक समानता की प्रतिमा का अनावरण करने यहां आए थे तब भी केसीआर ने अस्वस्थता का हवाला देकर प्रधानमंत्री की अगवानी नहीं की। मई 2022 में भी मोदी के।
हैदराबाद पहुंचने से कुछ घंटे पहले ही तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव बेंगलुरु रवाना हो गए थे। इस पर तेलंगाना भाजपा अध्यक्ष संजय बादी ने केसीआर पर तंज कसते हुए कहा कि टाइगर के आते ही लोमड़ियां भाग जाती हैं। उधर केसीआर ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर हमला कर कहा कि आप किसानों के खिलाफ कृषि कानून लेकर आए। विरोध कर रहे किसान भाइयों को आपने खालिस्तानी कहा। आपके मंत्री के पुत्र ने आंदोलन कर रहे किसानों के ऊपर जीप चढ़ा दी। आपको किसानों पर दया भी नहीं आई। आपने आपका कौन सा वादा पूरा किया? केसीआर की पार्टी की तरफ से भी एक बयान आया कि हैदराबाद में भाजपा के जो नेता हैं, बिरयानी खाएं और जाएं।
इस पूरे प्रकरण को खूब चटकारे लेकर देखा-सुना गया।
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