क्या दो दशक से चल रहा सत्ता परिवर्तन का पैटर्न बदलेगा ?


Chanakya Mantra May 2022 Edition 

जय नारायण व्यास 1951 से 1954 तक  राजस्थान के सीएम रहे। हालांकि मजेदार बात यह है कि इस दौरान बीच में कुछ समय के लिए टीका राम पालीवाल भी सीएम बन गए। सीएम के रूप में पालीवाल की एंट्री बेहद दिलचस्प है।

व्यास तत्कालीन प्रधानमंत्री और कांग्रेस के सबसे बड़े नेता जवाहरलाल नेहरू के बेहद करीबी नेताओं में से एक थे। यही वजह थी कि देश और राज्य के आम चुनाव के पूर्व 1951 में उन्हें हीरा लाल शास्त्री की जगह राजस्थान का मुख्यमंत्री बना दिया गया। 

राजस्थान का पहला विधानसभा चुनाव 1952 में हुआ, व्यास तब राज्य के मुख्यमंत्री थे। व्यास ने जालौर-ए और जोधपुर शहर-बी नामक दो विधानसभा क्षेत्रों से अपना चुनाव लड़ा।

यह चुनाव पोस्टल बैलेट से हुआ था इसलिए नतीजे आने में कई दिन लगे थे। जब नतीजे आ रहे थे तब जयनारायण व्यास अपने खास मित्र नेताओं माणिक्यलाल वर्मा, मथुरादास माथुर और रामकरण जोशी आदि के साथ बैठकर चुनाव परिणामों का जायजा ले रहे थे। इन परिणामों पर जयनारायण व्यास अपने राजनैतिक मित्रों के साथ चर्चा कर ही रहे थे कि तभी उनके सचिव वहां आए और बोले कि साहब दो खबरें हैं जिनमें एक अच्छी है और एक बुरी!

व्यास ने पूछा कि अच्छी खबर कौन सी है तो सचिव ने बताया कि कांग्रेस पार्टी राजस्थान में कुल 160 में से 82 सीटों पर चुनाव जीत गई है और राज्य में कांग्रेस की सरकार बन गई है। व्यास ने कहा वेरी गुड-वेरी गुड, अब बुरी खबर बताओ। सचिव ने कहा कि साहब आप दोनों ही जगहों से चुनाव हार गए हैं!

यह खबर सुनते ही कमरे में सन्नाटा छा गया।  व्यास की हार के बाद उनके करीबी और डिप्टी सीएम टीका राम पालीवाल को सीएम बनाया गया। पालीवाल 3 मार्च से 31 अक्टूबर 1952 तक मुख्यमंत्री रहे। व्यास को वापस लाने के लिए किशनगढ़ से विधायक चांदमल मेहता द्वारा इस्तीफा दिलवाया गया। जयनारायण व्यास यह उपचुनाव जीतकर ही दोबारा सीएम बन पाए!  टीका राम पालीवाल को फिर से डिप्टी सीएम बना दिया गया।

दरअसल यह किस्सा लिखने का यह मतलब नहीं कि हम जयनारायण व्यास या  टीका राम पालीवाल या फिर राजस्थान के राजनीतिक इतिहास पर चर्चा केंद्रित करने वाले हैं। इस घटना को लिखने का अर्थ यही है कि राजस्थान के राजनीतिक मिजाज को समझना इतना आसान नहीं है। राजस्थानी जनता के दिल की टोह ले पाना वाकई बेहद कठिन है। ये किसी भी तुर्रम खां को अर्श से फर्श पर और किसी भी सामान्य व्यक्ति को फर्श से अर्श पर पहुंचा सकती है।

राजस्थान में कुल 200 विधानसभा सीटें हैं। पिछले दो दशक से अधिक समय राजस्थान में कोई भी सरकार रिपीट नहीं हो रही है। मसलन 1998 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 156 सीटें जीती थी, वर्ष 2003 में 120 सीटें भाजपा ने जीतीं तो कांग्रेस के पास 56 सीटें आईं और बाकी पर अन्यों ने जीत दर्ज की। वर्ष 2008 में कांग्रेस ने 96 सीटों पर विजय प्राप्त की तो वहीं भाजपा को 78 सीटें आईं। वर्ष 2013 में भाजपा ने 162 सीटों के साथ भारी भरकम जीत दर्ज की, वहीं कांग्रेस के पास 21 सीटें ही रह गईं। 

इसी तरह वर्ष 2018 में 199 सीटों पर हुए चुनावों में कांग्रेस पार्टी को कुल 100 सीटों पर जीत मिली, जबकि बीजेपी 73 सीट ही अपने नाम कर पाई। निर्दलीय उम्मीदवार 13 सीटें जीत गए, बहुजन समाज पार्टी छह, राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी तीन, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सिस्ट) दो, भारतीय ट्राइबल पार्टी दो व राष्ट्रीय लोक दल एक सीट पर विजयी रहे। 

आखिर राजस्थान में सरकारें हर बार क्यों बदल जाती हैं। इसका जवाब यह है कि दरअसल कांग्रेस और भाजपा के अलावा राजस्थान में कोई तीसरी पार्टी का अस्तित्व नहीं है। दशकों से कांग्रेस और भाजपा ही राजस्थान की राजनीतिक जमीन पर योद्धा साबित हुए हैं। कोई तीसरा विकल्प राजस्थान में अभी तक उभरकर सामने नहीं आया है। जनता इन्हीं दोनों विकल्पों में से बेहतर विकल्प तलाशती है। यही वजह है कि इन दोनों पार्टियों में से किसी एक का सत्ता में आना तय हो जाता है। 

इसके साथ ही राजस्थान में राजनीतिक चेतना काफी है। पूरे प्रदेश में जनहित में और जनविरोधी नीतियों के खिलाफ धरने-प्रदर्शन होते रहते हैं। इससे आगामी चुनाव में विपक्ष का आना तय हो जाता है। भले ही राजस्थान का भौगोलिक क्षेत्र का बहुत बड़ा है मगर कमाल की बात यह है कि चुनावों (विधानसभा) में पूरे प्रदेश में जनता का मूड एक जैसा बन जाता है और अमूमन नई सरकार पूर्ण बहुमत से बन जाती है। इसके साथ-साथ एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि विरोधी दलों के नेताओं में पारस्परिक सम्बंध सौहार्दपूर्ण रहते हैं। कुछेक घटनाओं को छोड़ दिया जाए तो नेताओं में आयाराम-गयाराम (दलबदल) फैक्टर भी नहीं है। कहा जा सकता है कि राजस्थान के मतदाताओं में राजनीतिक शऊर जबरदस्त है, वे किसी को नवाजते भी है और सबक़ भी सिखा देते हैं।



राजस्थान में चुनावी मुद्दे काफी हैं, हर चुनाव में इन्हें दुरुस्त करने के वायदे होते हैं मगर समस्या ज्यों की त्यों बनी रहती है। 

यहाँ  बाकी देश की तरह महंगाई, बेरोजगारी, महिला सशक्तिकरण, भ्रष्टाचार, बिजली, पेयजल, सड़क व जात-पात तो मुद्दे हैं हीं मगर कुछ मुद्दे बेहद गम्भीर हैं।

मसलन पूरे राजस्थान में बरसात बहुत कम होती है। नहरी पानी भी बेहद कम है। कृषि और पीने के लिए पूरे राज्य में भूमिगत जल का बुरी तरह दोहन हो चुका है। लगभग पूरा राजस्थान डार्क जोन में आ चुका है। पानी की उपलब्धता सुनिश्चित करवाना एक बहुत बड़ा मुद्दा है।

राजस्थान की करीब 7 करोड़ जनसंख्या में से करीब 75 फीसदी हिस्सा ग्रामीण क्षेत्रों में रहता है। जिसके लिए बेहतर स्कूली शिक्षा नहीं है। स्कूलों की कमी और ग्रामीण इलाकों से स्कूलों का दूर होना बहुत बड़ी समस्या है।

ज्यादातर जनसंख्या का जीवन यापन करने का जरिया खेती है। ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले किसानों की खेती किसानी ग्लोबल वार्मिंग के चलते जलवायु के शुष्क होते जाने के कारण लगभग बर्बाद हो चुकी है। अच्छी उत्पादकता के लिए किसानों को इतना रुपया खर्च करने के साथ ही मेहनत करनी पड़ती है कि उसकी तुलना में फसल की वाजिब कीमत मंडी में उन्हें नहीं मिल पाती।

सरकारी स्वास्थ सेवाएं भी चरमराई हुई हैं। स्वास्थ्य सेवाओं को सस्ता उपलब्ध कराने का भी बहुत बड़ा मुद्दा है। 

ये तो हैं कुछ चुनावी मुद्दे जिनको हल करवाने का वायदा करके कभी भाजपा जीत जाती है कभी कांग्रेस लेकिन ये मुद्दे आज तक हल नहीं हो पाए हैं।

वर्ष 2018 में हुए चुनावों में हालांकि कांग्रेस ने 199 में से 100 सीटें जीतकर सरकार बना ली थी। कांग्रेस ने दिसंबर 2018 के विधानसभा चुनावों में 100 सीटें जीती थीं। पार्टी ने बाद में उपचुनाव में एक सीट (रामगढ़) जीती, जिससे उसकी संख्या 101 हो गई। इसके बाद, बसपा के छह विधायक पार्टी में शामिल हो गए, जिससे उनकी संख्या 107 हो गई जबकि बीजेपी के 72 विधायक रह गए। दिखने में तो कांग्रेस बहुमत के साथ सुखद स्थिति में लग रही थी। क्योंकि 107 विधायकों के साथ-साथ अनेक अन्य विधायकों का साथ भी उसके साथ साथ था। भाजपा 72 विधायकों के साथ उलटफेर की स्थिति में नहीं थी। लेकिन राजस्थान की राजनीति में एक खिचड़ी पक रही थी, कांग्रेस में नीचे ही नीचे असंतोष की आग धधक रही थी।

आखिकार 2018 में मुख्यमंत्री पद से वंचित किए जाने के बाद से नाराज उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट, जो राज्य कांग्रेस अध्यक्ष भी थे ने जुलाई 2020 में खुलकर बगावत कर दी। उनके सहित, 19 कांग्रेस विधायक मुख्यमंत्री और पार्टी को धता बताते हुए विधायक दल की बैठकों से दूर रहे। इस विद्रोह ने राजस्थान में गहलोत की सरकार को गिरने के कगार पर ला दिया। क्योंकि बीजेपी भी मध्यप्रदेश में कांग्रेस का तख्तापलट करके राजस्थान को टारगेट पर लिए हुए थी। 

सचिन पायलट और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खेमों के बीच यह लड़ाई करीब एक महीने तक चली और इसकी वजह से दोनों खेमों का बहुत नुकसान हुआ। पायलट को उपमुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष के महत्वपूर्ण पदों से हाथ धोना पड़ा। यहां तक कि विधान सभा अध्यक्ष ने पायलट और बाकी विधायकों को अयोग्य तक घोषित करने का नोटिस जारी कर दिया, जिसके खिलाफ पायलट खेमे ने राजस्थान हाई कोर्ट में याचिका दायर कर दी थी। यही नहीं, हाई कोर्ट के इस नोटिस पर रोक लगाने पर अध्यक्ष ने हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी थी।

इस भीषण राजनीतिक संकट में गांधी परिवार ने सचिन पायलट के साथ संवाद के द्वार हमेशा खुले रखे। खुद पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और उनकी बहन और पार्टी महासचिव प्रियंका गांधी दोनों पायलट से मिले और उनकी वापसी की शर्तें तय हुईं। इन बैठकों के बाद 10 अगस्त 2020 को कांग्रेस पार्टी के आलाकमान ने बयान जारी करके बताया कि पायलट राहुल गांधी से मिले, उनके समक्ष अपनी शिकायतें रखीं और दोनों के बीच स्पष्ट, खुली और निर्णायक चर्चा हुई। बयान में कहा गया कि पायलट ने राजस्थान में पार्टी और पार्टी की सरकार के हित में काम करने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताई है और इसके साथ ही फौरी तौर पर संकट टल गया।

राजस्थान के विधानसभा चुनाव में अभी करीब डेढ़ साल बाकी है, लेकिन कांग्रेस और भाजपा  ने आगामी चुनावों को लेकर चुनावी शतरंज की बिसात पर अपनी गोटियां बिठानी शुरू कर दी हैं। कांग्रेस फिर से 2003 या 2013 जैसी स्थिति का सामना नहीं करना चाहती है जब वह राज्य में दोबारा सत्ता में आने में विफल हो गई थी। महत्वपूर्ण बात यह है कि हाल ही में पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी पार्टी को करारा झटका लगा है। यही वजह है कि पार्टी बड़ा कदम उठाते हुए राजस्थान की चुनावी रणनीति में कोई बड़ा बदलाव कर सकती है। हाल ही में इसके संकेत दिखे हैं। पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्षा सोनिया गांधी ने पहले राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से लंबी बैठक की। वहीं उसके अगले ही दिन सोनिया ने पूर्व डिप्टी सीएम सचिन पायलट से राजस्थान को लेकर लंबी चर्चा की।

चर्चा चल रही हैं कि हो सकता है कि सचिन पायलट को राज्य की जिम्मेदारी दी जा सकती है। क्योंकि वे युवा और ऊर्जावान हैं साथ ही उनके पास एक बड़ा कैडर भी है। राजस्थान के मतदाताओं को लुभाने का मौका देना कांग्रेस की योजना का एक हिस्सा हो सकता है लेकिन पार्टी के लिए ऐसे में बड़ी समस्या ये है कि वो अशोक गहलोत की नाराजगी भी मोल नहीं ले सकती है। अमरिंदर सिंह की तरह अगर पार्टी में उनको एक बड़ी भूमिका नहीं दी जाती है तो वो अपनी बर्खास्तगी के विरोध में विधानसभा चुनावों में पार्टी को हराने में भी सक्षम हैं। इसका गवाह यह तथ्य है कि गहलोत के नेतृत्व में पार्टी ने अब तक हुए सभी उपचुनावों के साथ-साथ तहत स्थानीय निकाय चुनावों में भी अच्छा प्रदर्शन किया है।

चलते-चलते

देश की आजादी से लेकर 1977 के विधानसभा चुनाव से पहले तक कांग्रेस राजस्थान में सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत बनी रही। इस दौरान कांग्रेस का दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक शक्ति से वोट शेयर का अंतर हमेशा 20 परसेंट से भी ज्यादा बना रहा। आज भी राजस्थान उन गिने चुने राज्यों में एक है जहाँ कांग्रेस या कांग्रेस गठबंधन की सरकारें हैं।

राजस्थान की राजनीति में क्षेत्रीय दलों का प्रभाव

राजस्थान की राजनीति कांग्रेस और बीजेपी के रूप में मुख्यतः दो ध्रुवीय ही रही है। अगर यहाँ क्षेत्रीय दलों की बात की जाए तो अखिल भारतीय राम राज्य परिषद (आरआरपी) पहले दो राज्य विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के लिए एक चुनौती के रूप में उभरी, लेकिन उसके बाद, आरआरपी का वोट शेयर 10 परसेंट से घटकर 2 परसेंट पर आ गया और पार्टी ने अपनी प्रासंगिकता खो दी। उसके बाद आरआरपी का जनसंघ में विलय हो गया। फिर 1962 से 1972 तक तीन विधानसभा चुनावों में स्वतंत्र पार्टी, सत्तारूढ़ कांग्रेस की विरोधी बन गई। लेकिन अपने उत्कृष्ट प्रदर्शन के दौरान भी स्वतंत्र पार्टी को केवल 22 परसेंट वोट मिले, 1967 में यह कांग्रेस के वोट शेयर की तुलना में 20 फीसदी कम थे।

1993 के बाद तो राजस्थान की राजनीति में केवल बीजेपी और कांग्रेस ही मुख्य खिलाड़ी रह गए। ऐसे में बहुजन समाज पार्टी ने यहाँ एंट्री ली। बीएसपी ने 2008 के विधानसभा चुनावों में ठीक-ठाक प्रदर्शन करके 8 परसेंट वोट लेकर छह सीटें जीत लीं लेकिन बीएसपी कभी भी सरकार बनाने या मुख्य विपक्ष की भूमिका में नहीं आ पाई। पार्टी का दुर्भाग्य रहा कि इसके ज्यादातर विधायक चुनाव जीतने के बाद पाला बदलते रहे।

2018 के आखिरी विधानसभा चुनाव में, हनुमान बेनीवाल व घनश्याम तिवारी नामक बीजेपी के दो पूर्व नेताओं ने अपनी पार्टियां बना लीं।  हनुमान बेनीवाल के नेतृत्व में आरएलपी और घनश्याम तिवारी की अगुआई में भारत वाहिनी पार्टी थी। ये दोनों दोनों दलों को कुल  तीन परसेंट वोट भी नहीं मिल पाया और सिर्फ आरएलपी ही तीन विधानसभा सीटें जीत पाई। इस समय आरएलपी, बीजेपी का सहयोगी दल है।


मुकाबला महारानी और जादूगर का

राजस्थान में पिछले दो दशकों से भी ज्यादा समय से वसुंधरा राजे और अशोक गहलोत मुख्यमंत्री के रूप में काबिज रहे हैं। जहां वसुंधरा राजे ग्वालियर राजघराने की पुत्री हैं और धौलपुर राजघराने में ब्याही हैं। वहीं अशोक गहलोत का कैरियर एक जादूगर के रूप में शुरू हुआ। महारानी और जादूगर का आमना-सामना बेहद दिलचस्प रहेगा।

वसुंधरा राजे बेहद अक्खड़ व दबंग राजनेताओं में शुमार है उनके व्यवहार में राजसी व्यवहार स्पष्ट दिखाई देता है। राजे ने बीजेपी नेत्री के रूप में अपनी सियासी पारी की शुरुआत मध्य प्रदेश से की थी। लेकिन बाद में वह राजस्थान लौटीं और देखते ही देखते राज्य में बीजेपी की सबसे ताकतवर नेताओं में शुमार हो गईं। हालांकि एक समय ऐसा भी आया था जब वसुंधरा राजे अपनी ही पार्टी आलाकमान के फैसले से नाराज़ हो गईं थीं। उन्होंने बीजेपी के तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह से फोन पर बात करने से इनकार तक कर दिया था। वजह यह थी कि 2006 में राजस्थान में बीजेपी अध्यक्ष की कुर्सी महेश शर्मा को सौंप दी गई थी। लेकिन साल 2007 में गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान ओम प्रकाश माथुर बीजेपी प्रभारी थे और पार्टी को गुजरात में मिली शानदार जीत के बाद वह तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के पसंदीदा नेता बन गए थे। राजनाथ सिंह ने माथुर को राजस्थान बीजेपी का अध्यक्ष बनाने का फैसला किया। राजस्थान की तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को ये बात बिल्कुल पसंद नहीं आई और वह आलाकमान के इस फैसले से नाराज़ हो गई थीं। वसुंधरा राजे की नाराज़गी का आलम ये था कि उन्होंने इस मामले पर चर्चा करने के लिए राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह का फोन तक नहीं उठाया और उनसे बात तक करने से इनकार कर दिया था!

दूसरी तरफ, अशोक गहलोत का जन्म जोधपुर के एक बेहद सामान्य घर में हुआ। पिता लक्ष्मण सिंह दक्ष एक शानदार जादूगर थे। वे पूरे देश में घूम-घूमकर जादू दिखाते थे। बेटा अशोक भी अपने पिता के साथ रहकर स्टेज पर जादू दिखाता, साथ में पढ़ाई भी जारी रही। वर्ष 1972 में बीएससी की पढ़ाई पूरी हो गई। जोधपुर से 50 किलोमीटर दूर पीपाड़ कस्बे में खाद-बीज की दुकान खोली पर चली नहीं। एमए करने लगे, उसी दौरान कांग्रेस के छात्र संगठन एनएसयूआई से जुड़ गए। यूनिवर्सिटी में महासचिव चुनाव हार गए मगर राजनीति जारी रही। इसी दौरान 1973 में संजय गांधी ने अशोक गहलोत को एनएसयूआई का राज्य अध्यक्ष बना दिया। फिर आपातकाल के बाद कांग्रेस लोकसभा हार चुकी थी। राजस्थान में विधानसभा चुनाव लड़ने को कांग्रेसी खोजे नहीं मिल रहे थे, ऐसे में अशोक गहलोत जोधपुर की सरदारपुरा सीट से लड़ने के लिए संजय से टिकट ले आए मगर 4,329 वोटों से चुनाव हार गए। जल्द ही 1980 में लोकसभा चुनाव हुए, इस बार वे जोधपुर से 52,519 वोटों के अंतर से सांसद बन गए। उसके बाद तो सब कुछ इतिहास हो गया।

देखते हैं कि अगले बीस महीनों में महारानी का राज परवान चढ़ता है या जादूगर का जादू फिर से लोगों के सिर चढ़कर बोलेगा।



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