तीसरे मोर्चे के लिए कितने तैयार हैं क्षेत्रीय दल
Chankaya Mantra April 2022 Edition |
13 फरवरी 2022 को तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव (केसीआर) ने एलान किया कि वह बहुत जल्द बीजेपी के खिलाफ सभी राजनीतिक दलों को एकजुट करेंगे। इसके साथ ही महाराष्ट्र में भी शिवसेना ने एलान कर दिया कि 10 मार्च के तुरंत बाद पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी और महाराष्ट्र के सीएम उद्धव ठाकरे मिलेंगे। इसी दौरान तमिलनाडु के सीएम एमके स्टालिन ने भी घोषणा कर दी कि वे आगामी दो महीने के अंदर दिल्ली में सभी गैर बीजेपी दलों के मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन बुलाएंगे।
दरअसल 10 मार्च 2022 को उत्तरप्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर विधानसभा चुनावों के परिणाम आने थे। इससे पहले सभी गैर बीजेपी दलों के नेताओं में खूब उत्साह का संचार हो रखा था। सभी की महत्वकांक्षाएं हिलोरे मार रही थीं। मगर 10 मार्च को जब विधानसभा चुनावों के परिणाम घोषित हुए तो आम आदमी पार्टी को छोड़कर बाकी पार्टियों के नेताओं का उत्साह काफूर हो गया। वजह यह थी कि पंजाब में आम आदमी पार्टी ने भारी उलटफेर करके अपनी सरकार बना ली जबकि बाकी चार राज्यों में बीजेपी ने अपना परचम लहरा दिया।
इससे केसीआर व क्षेत्रीय दलों की उम्मीदों और कोशिशों को झटका लगा लेकिन 27 मार्च 2022 को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने गैर-भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों और कांग्रेस समेत विपक्षी दलों के नेताओं को पत्र लिखकर उनसे भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के खिलाफ लड़ाई में एकजुट होने की अपील कर दी। पत्र में बनर्जी ने भाजपा से मुकाबला करने की रणनीतियों पर चर्चा करने और एकजुट एवं सैद्धांतिक विपक्ष बनाने का संकल्प लेने के लिए एक बैठक करने की अपील की, ताकि ऐसी सरकार बनाने की तैयारी की जा सके, जिसका देश हकदार है। ममता बनर्जी के पत्र के अनुसार सभी प्रगतिशील ताकतों को एक साथ आने और भाजपा के दमनकारी शासन से लड़ने की जरूरत है। उन्होंने पत्र में लिखा कि मैं सभी से बैठक करने की अपील करती हूँ, ताकि सभी की सुविधा तथा उपयुक्तता के अनुसार आगे की रणनीति पर विचार-विमर्श किया जा सके आईए, हम एकजुट एवं सैद्धांतिक विपक्ष बनाने का संकल्प लें, ताकि ऐसी सरकार बनाने की तैयारी की जा सके, जिसका देश हकदार है।
इस पत्र के जवाब में भाजपा ने दावा किया कि तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाएं धराशायी हो गई हैं, जबकि कांग्रेस ने कहा कि पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ दल के पास भाजपा से लड़ाई में विश्वसनीयता की कमी है।
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इन छिटपुट कोशिशों के अलावा फिलहाल लगता नहीं है कि गैर भाजपाई तमाम विपक्षी क्षेत्रीय दल भाजपा और खासतौर पर नरेन्द्र मोदी को चुनौती देने का गम्भीर प्रयास कर रहे हैं। वैसे बीजेपी जिस रणनीति के तहत काम रही है उससे कांग्रेस के भविष्य को तो खतरा है ही साथ ही क्षेत्रीय दलों को भी अपने अस्तित्व को खतरा महसूस हो रहा है। इस वजह से क्षेत्रीय दल यदा-कदा तीसरे मोर्चे का राग छेड़ते नजर आ ही जाते हैं। लेकिन उनके सामने सबसे बड़ी समस्या किसी बड़े सर्वमान्य चेहरे का न होना है। केसीआर, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, अरविंद केजरीवाल, अखिलेश यादव, देवेगौड़ा, शरद पवार, स्टालिन और तेजस्वी यादव यादव जैसे कुछ नाम हैं तो मगर इनमें से कोई इतना करिश्माई नेता नहीं जो सभी को अपने साथ लेकर चल सके। बिखरा कुनबा जोड़ने के लिए किसी विराट व्यक्तित्व की आवश्यकता होती है जो इस समय दिखाई नहीं दे रहा। देश में दो बार ही 1977 और 1989 में तीसरे मोर्चे की सरकार बनी है।लेकिन उस समय मोरारजी देसाई, चरण सिंह, जगजीवन राम, वीपी सिंह, देवीलाल व चंद्रशेखर जैसे राष्ट्रीय स्तर के नेता थे जो कुछ समय तक कुनबे को एकजुट कर सकते थे। गैर भाजपाई पार्टियां जानती हैं कि उनमें से कोई भी केंद्र सरकार को अपने दम पर चुनौती देने में सक्षम नहीं है। महत्वपूर्ण बात यह भी है कि देश में दोनों बार कांग्रेस शासनकाल के खिलाफ ही तीसरा मोर्चा सरकार बना पाया है। वर्तमान राजनीतिक हालातों में लगता है कि नरेन्द्र मोदी के खिलाफ सामयिक तौर पर भले ही कुछ दल एकजुट हो जायें लेकिन उनकी एकजुटता कायम रहेगी ही यह कोई भी नहीं कह सकता। क्योंकि अतीत में हुए इस तरह के गठबंधनों का हाल जनता भूली नहीं है। उदाहरण के लिए जनता पार्टी (1977-1980) के दौरान मोरारजी देसाई, चरण सिंह और जगजीवन राम के बीच गहरे मतभेद हो गए थे। इसी तरह जनता दल (1989-1991) के दौरान वी.पी. सिंह, देवी लाल और चंद्रशेखर के बीच भी वर्चस्व की लड़ाई छिड़ गई थी। दोनों बार ही तीसरा मोर्चा अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया। लेकिन इस समय चुनौती कार्यकाल पूरा करना नहीं बल्कि तीसरे मोर्चे का गठन करना है।
आखिर क्यों बेचैन हैं क्षेत्रीय दल
नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में 2014 से मजबूती से सत्तारूढ़ बीजेपी अब क्षेत्रीय दलों को तगड़ी चुनौती दे रही है। तेलंगाना में भी बीजेपी मजबूती से जनाधार बढ़ा रही है। अभी तक बीजेपी के प्रति नरम रुख रखने वाली टीआरएस के सामने अब तेलंगाना में अपना जनाधार बचाने की चुनौती है। बिल्कुल यही स्थिति देश के दूसरे क्षेत्रीय दलों की है। ज्यादातर क्षेत्रीय दलों की सोच है कि दिल्ली में नरम और अपने राज्य में गरम वाली रणनीति भविष्य में काम नहीं कर पाएगी। इसी आधार पर स्टालिन और केसीआर जैसे नेता इस मुहिम में नवीन पटनायक को भी जोड़ना चाहते हैं जो दिल्ली में अब तक बीजेपी के अधिक करीब दिखाई दिए हैं। कुछ समय पहले आईएएस अधिकारियों के कॉडर बदलाव वाले मामले में भी केसीआर ने पहल की थी जिसके चलते ज्यादातर विपक्षी दल एक मंच पर आ गए।
मायावती की मायावी राजनीति
हालांकि कहने को तो बहुजन समाज पार्टी (बसपा) एक राष्ट्रीय पार्टी है, लेकिन अभी तक इसकी हैसियत इतनी नहीं रही कि अपने बलबूते पर केंद्र में सरकार बना सके। इसकी सर्वोच्च उपलब्धि उत्तरप्रदेश में अपनी सरकार बनाना रहा है। जब तक कांशीराम राजनीतिक रूप से सक्रिय रहे तब तक लगता रहा कि बसपा देर-सवेर केंद्रीय राजनीति में दमदार उपस्थित दर्ज करा सकती है। लेकिन कांशीराम के अवसान के साथ ही बसपा का ग्राफ भी गिरता चला गया। हालांकि आज मायावती पार्टी की सर्वेसर्वा हैं लेकिन उन्होंने अपने आपको कोकून में समेट लिया है यानी एक तरह से सक्रिय राजनीति से किनारा सा कर लिया है। हाल ही के उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनावों में भी मायावती में न तो वह हनक, न वो ठनक दिखाई दी जिसके लिए वो जानी जाती थी। ऐसे में उनसे ये अपेक्षा करना कि वो तीसरे मोर्चे में मुख्य भूमिका में दिखाई दे सकती हैं, दूर की कौड़ी लगता है। वैसे भी यूपी चुनाव में उनका झुकाव बीजेपी की तरफ ही दिखाई दिया।
2024 के चुनावों को लेकर क्षेत्रीय दलों की रणनीति
इन गैर बीजेपी क्षेत्रीय दलों की सोच है कि उनके प्रभाव वाले क्षेत्रों में लगभग 225 लोकसभा सीटें हैं। अगर वे सभी इन सीटों पर मिलजुल कर लड़ेंगे तो 2024 में सत्ता की चाबी उनके साथ हो सकती है। लेकिन फिलहाल लगता नहीं कि उनकी यह योजना सिरे चढ़ पाएगी। वजह यह है कि बीजेपी नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बेहद आक्रामक तरीके से राजनीति कर रही है। बीजेपी का एकमात्र उद्देश्य यह रहता है कि येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतना। इसके लिए पार्टी नैतिकता-अनैतिकता, अच्छा-बुरा व सिद्धांतों की भी परवाह नहीं करती। पार्टी को अच्छी तरह पता है कि जो जीता वही सिकन्दर होता है। फिलहाल इस समय बाकी किसी भी राजनीतिक दल के पास इसका मुकाबला करने के लिए न तो कोई नेता है, न संगठन और न ही संसाधन।
चलते-चलते
ऐसा नहीं है कि तीसरा मोर्चा बनाने की दिशा में केसीआर की यह पहली पहल है। वे 2019 के आम चुनाव से पहले भी यह कोशिश कर चुके हैं। उन्होंने इस मोर्चे में खुद के लिए उपप्रधानमंत्री पद का फार्मूला भी तय कर लिया था। उन्होंने आम चुनाव से पहले फेडरल फ्रंट बनाने की दिशा में उन्होंने अलग-अलग राज्यों का दौरा भी किया था। लेकिन मामला बात-मुलाकात से आगे नहीं बढ़ सका था। दरअसल तीसरे मोर्चे के गठन में सबसे बड़ी बाधा और चुनौती एक सर्वमान्य बड़े नेता को चुनने की है। अभी तक ऐसा कोई नेता उभरकर सामने नहीं आया है।
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