लखनवी तहजीब में हैदराबादी बिरयानी का तड़का

 असदुद्दीन ओवैसी के मिशन उत्तरप्रदेश के मायने

Februay Edition of Chankaya Mantra

कांशीराम ने 14 अप्रैल, 1984 को दलित वोटरों की राजनीति करने के लिए बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की स्थापना की थी। शुरू के दिनों में इसके साथ बहुत ज्यादा लोग नहीं जुड़े, बहुत से लोगों ने उनका मजाक भी उड़ाया। लेकिन कांशीराम अपने मिशन में रुके नहीं, अंततः कांशीराम ने 3 जून 1995 को बसपा की एक नेत्री मायावती को देश के सबसे बड़े प्रदेश, उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री पद की कुर्सी पर बिठा दिया। सिर्फ 11 साल में यह कल्पनातीत था। इसके साथ ही बसपा ने राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान हासिल कर लिया। कहने की बात है कि राजनीति में किसी को भी हल्के में कतई नहीं लिया जाना चाहिए। ऐसा ही कुछ ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के असदुद्दीन ओवैसी के साथ भी हो सकता है। ओवैसी की पार्टी इस समय देश के सबसे बड़े प्रदेश उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव में दस्तक दे रही है। इससे कुछ दलों के दिलों की धड़कनें बढ़ी हुई हैं जबकि कुछ के दिल बाग-बाग हैं।

एआईएमआईएम 80 वर्ष से भी पुराना मुस्लिम संगठन है इसकी शुरुआत हैदराबाद में एक धार्मिक और सामाजिक संस्था के रूप में हुई थी। बाद में यह संस्था राजनैतिक बन गई। नवाब महमूद नवाज़ खान ने 1928 में इसकी स्थापना की, 1948 तक यह संगठन हैदराबाद को एक अलग मुस्लिम राज्य बनाए रखने की वकालत करता था। हैदराबाद राज्य के 1948 में भारत में विलय के बाद भारत सरकार ने इस संगठन पर प्रतिबन्ध लगा दिया था, जो 1957 में जाकर बहाल हुआ। 

मुसलमानों की राजनीति करने वाली इस पार्टी ने पहली चुनावी जीत 1960 में दर्ज की जब उस वर्ष सलाहुद्दीन ओवैसी हैदराबाद नगर पालिका के सदस्य चुने गए और फिर दो वर्ष बाद वो विधानसभा के सदस्य बन गए। तब से लेकर इसकी शक्ति लगातार बढती जा रही है। वर्ष 1984 में हैदराबाद से इस पार्टी का पहली बार सांसद चुना गया। कुछ साल बाद एआईएमआईएम ने अपने फायर ब्रांड नेता असदुद्दीन ओवैसी के नेतृत्व में पूरे देश में मुसलमानों की राजनीति करने का लक्ष्य निर्धारित कर लिया जिसकी अभी तक की यात्रा इस प्रकार रही है।

Februay Edition of Chankaya Mantra

महाराष्ट्र

2014 में एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने हैदराबाद से बाहर पैर पसारे। इस बार उसने महाराष्ट्र का विधानसभा चुनाव लड़ा था, जिसमें पार्टी के दो उम्मीदवार चुनाव जीत गए। इसके बाद यहाँ 2019 के विधानसभा चुनाव में फिर से ओवैसी की पार्टी ने दो सीटें जीत लीं।

बिहार

फिर आया 2020 का निर्णायक साल। इस वर्ष ओवैसी की पार्टी ने बिहार के विधानसभा चुनाव में 5 सीटें जीत लीं। दरअसल असदुद्दीन ओवैसी का हौसला सबसे ज्यादा इसी प्रदर्शन ने बढ़ाया। ओवैसी ने ये पांचों सीटें मुस्लिम बहुल सीमांचल इलाके में जीतीं। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है बिहार के अनेक विधानसभा क्षेत्रों में ओवैसी ने मुसलमानों के वोट काटे और इससे आरजेडी को झटका लगा। जिससे बीजेपी-जेडीयू गठबंधन के उम्मीदवार मामूली अंतरों से बाजी मारते चले गए। कहा जाता है कि इसका फायदा भाजपा को मिला।
इसके साथ ही ओवैसी ने बिहार के राजनीतिक समीकरणों को भी बदल डाला। 

पश्चिम बंगाल 

बिहार के नतीजों से उत्साहित असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ने पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव का रुख किया। लेकिन यहां इस पार्टी को ज्यादा वोट हासिल नहीं हुए और एआईएमआईएम एक भी सीट नहीं जीत पाई.

गुजरात 

मार्च 2021 में हुए गुजरात निकाय चुनाव में भी  एआईएमआईएम ने किस्मत आजमाई। ओवैसी ने यहां भारतीय ट्राइबल पार्टी के साथ गठबंधन किया। ओवैसी की पार्टी ने गोधरा में 8 नगर पालिका सीटों पर चुनाव लड़ा और 7 जीत लीं, मोडासा नगर पालिका में ओवैसी की पार्टी ने 12 सीटों पर चुनाव लड़ा और 9 पर जीत हासिल की। इसके अलावा भरूच में भी एक नगर पालिका सीट एआईएमआईएम ने जीत ली। इस प्रदर्शन को बेहतरीन कहा जा सकता है।

 उत्तरप्रदेश फिर से है टारगेट पर

उत्तरप्रदेश में करीब 19 फीसदी मुसलमान हैं।

ओवैसी को दिसंबर 2019 में नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध के दौरान यहाँ लोकप्रियता मिली। यहाँ की मुस्लिम बहुल सीटों पर ओवैसी की नजर है। अतः असदुद्दीन ओवैसी उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव लड़ने का फिर से फैसला कर चुके हैं। इससे पहले एआईएमआईएम  2017 में भी उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव लड़ चुकी है। तब पार्टी ने 38 सीटों पर चुनाव लड़ा था पर सभी पर हार गई थी। इन चुनावों में पार्टी को 0.24 प्रतिशत वोट मिला था ये उस चुनाव में रालोद को मिले वोट शेयर से केवल 0.01 प्रतिशत ही कम था !

2017 के इस चुनाव में पार्टी का सबसे अच्छा प्रदर्शन संभल में रहा, जहाँ उनके उम्मीदवार जाइउर रहमान 59,336 वोटों के साथ तीसरे नंबर रहे, दूसरे नंबर पर 59,976 वोटों के साथ बीजेपी और 79,248 वोटों लेकर सपा ने यह सीट जीत ली थी। यही नहीं एआईएमआईएम ने पिछले साल उत्तरप्रदेश पंचायत चुनाव में 23 ज़िला पंचायत सीटें भी जीती थीं।

ओवैसी के टारगेट पर बीजेपी के साथ सपा भी रहती है। वे बार-बार कहते हैं कि सपा यूपी में मुसलमानों का स्वतंत्र नेतृत्व नहीं चाहती है। हालांकि वे अपने भाषणों में हिंदू-मुस्लिम एकता पर भी जोर देते हैं। फिलहाल ओवैसी की रैलियों में काफी भीड़ आ रही है। क्या यह भीड़ उनको वोट भी देगी यह देखना दिलचस्प रहेगा। देखना यह भी दिलचस्प होगा कि वो वोट कटुआ बन पाते हैं या नहीं।

...और यह भी कि कहीं अगर भविष्य में उत्तरप्रदेश के 19 प्रतिशत मुस्लिम वोटर एआईएमआईएम की तरफ  शिफ्ट हो गए तो प्रदेश की अनेक पार्टियों को अपनी सोशल इंजीनियरिंग नए तरीके से करनी पड़ेगी। हालांकि इस समय यह एक कल्पना लगती है लेकिन राजनीति में कल्पना कब हकीकत बन जाये कहा नहीं जा सकता! शुरुआती दौर में बहुत से लोग कांशीराम का भी तो मजाक उड़ाया करते थे।

चलते-चलते

हरियाणा में एक बेहद प्रसिद्ध कहावत है 'हंसी-हंसी में हसनगढ़ बसना' जिसका अर्थ यह होता है कि अगर कोई ऐसा काम करे जिसे सभी हल्का-फुल्का या मजाक समझें, मगर वह काम वाकई में सिरे चढ़ जाए तो यह कहावत चरितार्थ हो जाती है। कुल मिलाकर कहना यह है कि राजनीति में किसी भी व्यक्ति या पार्टी को नॉन सीरियस नहीं लिया जा सकता, पता नहीं कब गुल खिल जाए!


टिप्पणियाँ

Topics

ज़्यादा दिखाएं

Share your views

नाम

ईमेल *

संदेश *

Trending

नींव रखी नई औद्योगिक क्रांति की पर कहलाया किसान नेता

अहलावत जाट और दो लाख की खाट : ठाठ ही ठाठ

चौधरी चरणसिंह - एक सच्चा राष्ट्रवादी प्रधानमंत्री

आखिरकार छूट गए ओमप्रकाश चौटाला जेल से

किसानों का वो हमदर्द जिससे काँपती थीं सरकारें - महेंद्र सिंह टिकैत

एक भविष्यदृष्टा प्रधानमंत्री जिसने रखी डिजिटल इंडिया की नींव-राजीव गांधी

अलविदा चैम्पियन उड़न सिख

आखिर कितना उलटफेर कर पाएंगे ओमप्रकाश चौटाला

12 जून 1975 को ही पड़ गई थी इमरजेंसी की नींव

राजस्थान के कद्दावर नेता कुम्भाराम आर्य