क्या स्थिर सरकार मिल पायेगी गोवा को ?

 मुठ्ठी भर लोगों की मुठ्ठी में है सत्ता की चाबी

Februay Edition of Chankaya Mantra

"हम गोवा में पिछले 20-25 वर्षों से रह रहे हैं अतः हमने सोचा कि दो-तीन महीने के अंतराल में सभी मिलकर गेट टुगेदर किया करेंगे। ऐसी तीन-चार मीटिंग हुईं जिनमें हर बार लगभग 200-250 लोगों ने हिस्सा लिया। हमारा उद्देश्य सिर्फ इतना ही था कि सब मिलकर पारिवारिक और सामाजिक मुद्दों पर चर्चा करेंगे। सिर्फ इतने से लोगों की इन मीटिंग्स का गोवा के राजनैतिक गलियारों में ऐसा प्रभाव पड़ा कि हर राजनीतिक दल ने हमसे संपर्क साधना शुरू कर दिया और वे हमें अब काफी गम्भीरता से ले रहे हैं।" 


यह कहना है हरियाणा मूल के उन लोगों का जो व्यापार या नौकरी करने के लिए पिछले कुछ समय से गोवा में बस चुके हैं। अब वे वहीं के स्थाई निवासी हैं। हरियाणा से इस तरह के 3-4 हजार लोग गोवा में स्थाई रूप से बस गए हैं। जब इन मुठ्ठी भर लोगों से ही गोवा की राजनीति में असर पड़ सकता है तो हम चाणक्य मंत्र के पाठकों को यह  समझाने की कोशिश करेंगे कि गोवा के राजनीतिक हालात थोड़े से ही मतदाताओं से कैसे प्रभावित होते हैं। लेख में यह भी चर्चा करेंगे कि गोवा में इस समय राजनीतिक परिस्थितियां क्या हैं।


दरअसल क्षेत्रफल की दृष्टि से गोवा (3,702 वर्ग किलोमीटर) भारत का सबसे छोटा राज्य है। जबकि जनसंख्या के हिसाब से यह पूरे देश में चौथे स्थान पर है। लेख लिखे जाने तक गोवा के सभी 40 विधानसभा क्षेत्रों के सभी रजिस्टर्ड वोटरों की संख्या 11,56,464 थी। इनमें महिला वोटरों की संख्या 5,93,860 है, जबकि पुरुषों की 5,62,500 है और 4 वोट ट्रांसजेंडरों की भी हैं। ऐसे में सामान्य गणित से देखा जाए तो 40 में से हर विधानसभा क्षेत्र में औसतन केवल 28,912 ही वोटर हैं। वैसे गोवा में सबसे बड़ी विधानसभा वास्को-डि-गामा में कुल 35139 वोटर हैं जबकि 19,958 वोटरों के साथ सबसे छोटी विधानसभा मोर्मुगोवा है। जबकि देश के अन्य बड़े राज्यों की विधानसभा क्षेत्रों में यह आंकड़ा लाखों में होता है। मतदाताओं की संख्या के लिहाज से गोवा विधानसभा क्षेत्रों की तुलना किसी नगर निगम के वार्ड से की जा सकती है।


दिलचस्प बात यह है कि गोवा के पिछले 2017 के विधानसभा चुनावों में सबसे ज्यादा वोट मरकाइम विधानसभा क्षेत्र से महाराष्ट्र गोमांतक पार्टी के सुदीन धवलीकर को मिली थी जो कि केवल 17093 ही थीं। इसी तरह कार्टालिम विधानसभा क्षेत्र से बीजेपी के अलीना सलदान्हा जीत गए, हैरतअंगेज बात यह है कि उन्हें केवल कुल 5666 वोट ही प्राप्त हुई थीं।


अगर उन चुनावों में जीत का सबसे बड़े मार्जिन की बात की जाए तो यह मरकाइम विधानसभा क्षेत्र से ही थी सुदीन धवलीकर ने बीजेपी उम्मीदवार प्रदीप पुंडलिक शेट्टी को 13680 वोटों के अंतर से हराया था। शेट्टी को मात्र 3413 ही वोट मिले थे। सबसे कम मार्जिन से जीत वाली सीट कन्कोलिम रही थी यहाँ कांग्रेसी उम्मीदवार कलाफसियो डायस ने अपने निकटतम प्रत्याशी को केवल 33 वोटों से हराया था। इन सभी आंकड़ों का लब्बोलुआब यह है कि गोवा विधानसभा चुनावों में बिल्कुल थोड़े से वोटों से ही हार-जीत की बाजी पलट जाती है। यही वजह है कि यहाँ ज्यादातर समय त्रिशंकु विधानसभा रही हैं। हर उम्मीदवार को अपने सभी मतदाताओं के बारे में जानकारी रहती है अतः नेक टू नेक फाइट बनी रहती है, ऐसे में कौन जीतेगा या कौन हारेगा इसका पता लगाना बड़ा मुश्किल होता है। इसी के चलते यहाँ एग्जिट पोल भी ज्यादातर सटीक नहीं बैठते। राजनीतिक विश्लेषक भी जान नहीं पाते कि यहाँ हवा का रुख क्या है ?

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1961 में पुर्तगालियों के शासन का खात्मा किए जाने के बाद गोवा को भारत में दमन और दीव के साथ केंद्र शासित प्रदेश के रूप में शामिल किया गया। यह व्यवस्था 1987 तक जारी रही इसके बाद गोवा को भारत के पूर्ण राज्य का दर्जा हासिल हुआ। कुल मिलाकर गोवा में यह 13वां विधानसभा चुनाव होने जा रहा है जबकि पूर्ण राज्य बनने के बाद गोवा का यह नौवां आम चुनाव है।


राजनीतिक स्थिरता की बात की जाए तो पूर्ण राज्य बनने के बाद से गोवा में अब तक दिगंबर कामत को छोड़कर कोई भी मुख्यमंत्री अपना कार्यकाल पूरा कर सका है।


1987 में पूर्ण राज्य बनने के बाद प्रताप सिंह राणे गोवा के पहले मुख्यमंत्री बने। इससे पहले वे केंद्र शासित प्रदेश गोवा के भी मुख्यमंत्री रहे थे और इनके समय हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को जीत हासिल हुई और वे फिर से मुख्यमंत्री बने। लेकिन यह विधानसभा 3 साल तक ही चल सकी। इसके बाद 1989 में छठी विधानसभा के दौरान गोवा में इतनी राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति बनी कि इस विधानसभा ने अपने कार्यकाल में 6 मुख्यमंत्रियों की शपथ और एक राष्ट्रपति शासन का दौर देखा। सातवीं विधानसभा (1994) में थोड़ी स्थिरता आई और इस कार्यकाल में केवल 3 लोग ही मुख्यमंत्री बने।


1999 में आठवीं विधानसभा में लुइजिन्हो फलेरियो (तब कांग्रेस) और फ्रांसिस्को सरदिन्हा मुख्यमंत्री बने, इसी कार्यकाल में मनोहर पर्रिकर के रूप में बीजेपी ने राज्य में पहली बार सरकार बनाई। राज्य में 2002 में मध्यावधि चुनाव हुए, बीजेपी को जीत मिली और मनोहर पर्रिकर फिर से मुख्यमंत्री बने। लेकिन वह भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सके और प्रताप सिंह राणे 29 दिन के लिए मुख्यमंत्री बने। इसके बाद राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। राष्ट्रपति शासन खत्म होने के बाद राणे पांचवीं बार फिर से राज्य के सीएम बने।


2007 के चुनाव में कांग्रेस के दिगंबर कामत पहली बार मुख्यमंत्री बने और पूरे 5 साल का अपना कार्यकाल भी पूरा किया। वह ऐसा करने वाले गोवा राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने।


2012 के चुनाव में बीजेपी के मनोहर पर्रिकर राज्य के मुख्यमंत्री बने और करीब 3 साल सत्ता में रहे। केंद्रीय मंत्रिमंडल के लिए पर्रिकर ने मुख्यमंत्री का पद छोड़ दिया और लक्ष्मीकांत पारसेकर ने राज्य की सत्ता संभाली।


2017 के गोवा विधानसभा चुनावों में कांग्रेस 17 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी, लेकिन 13 सीटों वाली बीजेपी ने उसे कुर्सी की लड़ाई में मात दे दी। बीजेपी ने एमजीपी नेता रामकृष्ण उर्फ ​​सुदीन धवलीकर और गोवा फॉरवर्ड पार्टी (जीएफपी) के अध्यक्ष विजय सरदेसाई को डिप्टी सीएम पद देकर गठबंधन सरकार बना ली। भाजपा के प्रमुख रणनीतिकार मनोहर पर्रिकर ने सरकार बनाने के लिए दोनों क्षेत्रीय दलों और दो निर्दलीय विधायकों को अपने साथ मिला लिया। मार्च 2019 में कैंसर से पर्रिकर की मृत्यु हो गई। प्रमोद सावंत नए मुख्यमंत्री बने। जुलाई 2019 में, कांग्रेस के दस विधायक और एमजीपी के दो विधायक भाजपा में शामिल हो गए इससे भाजपा को 27 विधायकों के साथ पूर्ण बहुमत मिला। जहां नए लोगों को मंत्री पद दिया गया, वहीं सरदेसाई, धवलीकर और निर्दलीय विधायक रोहन खुंटे को सावंत मंत्रिमंडल से निकाल दिया गया, ये भाजपा के कड़े विरोधी बन गए।
आगामी 2022 विधानसभा चुनावों के लिए, सरदेसाई ने कांग्रेस के साथ हाथ मिला लिया है और एमजीपी ने तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन किया है। जबकि खुंटे पलटी मारकर भाजपा में शामिल हो गए हैं। बीजेपी, कांग्रेस, एमजीपी और जीएफपी जैसे पारंपरिक दावेदारों के साथ, टीएमसी, आप और स्वदेशी क्रांतिकारी गोवा सहित कई अन्य दल गोवा में चुनावी लड़ाई के लिए कमर कसकर खड़े हैं। लेकिन मुख्य मुकाबला बीजेपी और कांग्रेस के बीच ही रहेगा।


बीजेपी के सामने पिछली बार की तुलना में इस बार लड़ाई अलग है, अब उनके पास मनोहर पर्रिकर जैसा करिश्माई नेता भी नहीं हैं। ऐसे में बीजेपी के लिए राह आसान नहीं दिख रही। हालात यह हैं कि मनोहर पर्रिकर के बेटे उत्पल पर्रिकर भी टिकट न मिलने पर पणजी सीट से बीजेपी उम्मीदवार बाबूश उर्फ अनासितानो मोंसेरात  के खिलाफ निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर पर्चा भर चुके हैं। बीजेपी द्वारा लगातार उत्पल को मनाने की कोशिशें जारी हैं। पणजी सीट पर मत विभाजन का सीधा फायदा कांग्रेस को होने की उम्मीद है। पणजी बीजेपी की परंम्परागत सीट रही है और मनोहर पर्रिकर इस सीट से लगातार जीतते रहे हैं। उधर, गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री और बीजेपी नेता लक्ष्मीकांत पारसेकर भी टिकेट न मिलने से पार्टी छोड़ चुके हैं।


लेकिन अन्य दलों के लिए भी गोवा में आसानी से जीत मिलेगी, इसके भी आसार कम ही दिख रहे हैं।
उधर कांग्रेस दलबदलुओं से इतनी परेशान हो चुकी है कि वह हाल ही में अपने घोषित सभी 34 उम्मीदवारों को बस के जरिये मंदिर, गिरिजाघर और दरगाह ले गई और उन्हें दल बदल के खिलाफ शपथ दिलाई। उल्लेखनीय है कि कांग्रेस को वर्ष 2017 में राज्य की 40 सदस्यीय विधानसभा के लिए हुए चुनाव में 17 सीटों पर जीत मिली थी और वह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी, लेकिन उसके 15 विधायक पाला बदल गए और इस समय उसके केवल दो विधायक सदन में बचे हैं। 


इन विधानसभा चुनावों में तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी भी यहाँ किस्मत आजमाने जा रही हैं लेकिन फिलहाल इन चुनावों में ये दोनों पार्टियां कोई बड़ा उलटफेर करते हुए दिखाई नहीं दे रहीं।
गोवा में पूरे देश की तरह बेरोजगारी एक बड़ा मुद्दा है और स्थानीय निवासी इस बारे में खुलकर बात भी कर रहे हैं। दोनों राष्ट्रीय पार्टियां इस मुद्दे पर लोगों को कैसे कन्विंस करेंगी यह देखना भी दिलचस्प रहेगा।


चलते-चलते
बीजेपी पार्टी ने 20 जनवरी को 34 सीटों पर उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी है, अब सिर्फ छह सीटों पर कैंडिडेट घोषित होने हैं। सूत्रों के अनुसार बीजेपी ने गोवा विधानसभा चुनावों में 40 में से केवल 38 सीटों पर उम्मीदवार उतारने का फैसला किया है। खबर है कि बेनालिम और नुवेम नामक दो विधानसभा क्षेत्रों में बीजेपी अपने चुनाव चिन्ह पर कोई उम्मीदवार नहीं उतारेगी। वजह यह है कि बेनालिम और नुवेम विधानसभा क्षेत्र के लोग परंपरागत रूप से गैर-भाजपाई उम्मीदवारों के लिये मतदान करते हैं। यह दोनों ईसाई बहुल सीटें हैं। मतलब यह है कि धुर्वीकरण का फार्मूला भी अपनाने की कोशिशें जारी हैं!






  

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