सोलिलादा सरदारा क्या वाकई में सोलिलादा साबित होंगे?

शायद आप लेख का शीर्षक पढ़कर चौंक गए होंगे! चौंकना लाजमी भी है क्योंकि इसमें कन्नड़ शब्दावली का प्रयोग किया गया है। दरअसल नए कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का कन्नड़ उपनाम 'सोलिलादा सरदारा' है जिसका हिंदी में अर्थ है 'बिना हार के नेता'। यह उपनाम काफी हद तक उचित भी है। क्योंकि 80 वर्षीय इस दिग्गज नेता ने 2019 में एक बार को छोड़कर, अपने पूरे जीवनकाल में कोई चुनाव नहीं हारा है!

Chanakya Mantra November 2022 Edition

खैर, इससे यह पता तो चल जाता है कि वे अपनी राजनीतिक पारी में काफी हद तक अजेय रहे हैं और अपनी पार्टी व अपने मतदाताओं पर उनकी पकड़ बेमिसाल रही है। इस बार भी कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद के चुनाव में उन्होंने अपने से कहीं युवा व आकर्षक व्यक्तित्व के धनी शशि थरूर को 1072 के मुकाबले 7897 वोटों से हरा दिया। वे 24 वर्षों में नेहरू गांधी परिवार के बाहर पहले कांग्रेस अध्यक्ष बने हैं। खड़गे 1968 में एस निजलिंगप्पा के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद कर्नाटक के दूसरे नेता हैं जो पार्टी के शीर्ष पद पर आसीन हो । 

मुझे मल्लिकार्जुन खड़गे के सामने जो सबसे बड़ी चुनौती दिखाई देती है वह उनकी खुद की उम्र है। क्योंकि वे 80 वर्ष के हो चुके हैं, इतनी उम्र में खुद को चुस्त-दुरुस्त रखना ही सबसे बड़ी चुनौती होता है। शरीर के सभी अंग शिथिल होने लगते हैं और व्याधियां शरीर पर हावी हो जाती हैं। इसके साथ-साथ यादाश्त भी क्षीण होने लगती है। यह प्रक्रिया सिर्फ मल्लिकार्जुन खड़गे के साथ ही नहीं हर मानव शरीर के साथ घटित होती ही है अतः इसे हमें सामान्य तरीके से ही लेना चाहिए। कहा जा सकता है कि उम्र कांग्रेस के नए अध्यक्ष के सामने सबसे बड़ी चुनौती है।

चलो मान लिया जाए कि मल्लिकार्जुन खड़गे ने वृद्धावस्था पर काबू पा लिया है तो उनके सामने मृतप्रायः सी लग रही भारत की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी में नई जान फूँकना होगा। सबसे पहले पूरे देश के सभी राज्यों में प्रदेश, जिला और ब्लॉक स्तर पर संगठन खड़ा करना होगा। बहुत से राज्यों में पिछले कई बरसों से कांग्रेस के जिला या ब्लॉक स्तर पर कोई संगठन अस्तित्व में ही नहीं है। क्या मल्लिकार्जुन खड़गे पूरे देश में ब्लॉक स्तर पर कांग्रेस को खड़ा कर पाएंगे यह सबसे बड़ा सवाल है। दरअसल राजनीतिक प्लानिंग कितनी ही मजबूत और शानदार क्यों न हो उसे धरातल पर उतारने के लिए अंतिम पायदान तक संगठन का होना अत्यंत आवश्यक होता है। यही कांग्रेस के पास नहीं है। 

कहा जाता है किसी भी युद्ध को जीतने में वॉरटाइम की बजाए पीसटाइम में जो तैयारी होती है वही युद्ध जीतने में निर्णायक होती है। जो लोग सोच रहे हैं कि नए अध्यक्ष की परीक्षा गुजरात और हिमाचल प्रदेशों के विधानसभा चुनावों में होगी, वे गलत हैं। क्योंकि मल्लिकार्जुन खड़गे के पास इन दोनों चुनावों के लिए समय ही नहीं बचा है। कायदे से उन्हें 2024 के लोकसभा चुनावों के परिपेक्ष्य में देखा जाना चाहिए क्योंकि अभी इन चुनावों के लिए यह पीसटाइम है और इस वक्त का खड़गे किस तरह प्रयोग करेंगे यह देखना वाकई दिलचस्प होगा।

वैसे 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले देश में 11 राज्यों में चुनाव होंगे। हिमाचल प्रदेश विधानसभा का कार्यकाल 8 जनवरी 2022 को जबकि गुजरात में 18 फरवरी 2022 समाप्त हो रहा है। चुनाव आयोग ने हिमाचल प्रदेश में आगामी 12 नवम्बर को विधानसभा चुनाव करवाने की घोषणा कर दी है जबकि गुजरात में चुनावों की घोषणा किसी भी क्षण हो सकती है।

जबकि अगले साल, त्रिपुरा, मेघालय और नागालैंड में जहां फरवरी-मार्च में मतदान होगा, वहीं कर्नाटक में विधानसभा चुनाव मई में होने हैं। मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मिजोरम और तेलंगाना में नवंबर-दिसंबर में मतदान होगा। खड़गे के सामने सबसे बड़ी परीक्षा कांग्रेस पार्टी को इनमें से ज्यादा से ज्यादा राज्यों में जीत दिलाने की होगी।

राजनीतिक समीकरण

कांग्रेस को दशकों बाद दलित समुदाय से अध्यक्ष मिला है। खड़गे, स्वर्गीय जगजीवन राम के बाद यह पद संभालने वाले दूसरे दलित नेता हैं। यह देखना होगा कि क्या मल्लिकार्जुन खड़गे के कारण कांग्रेस इसका फायदा उठा पाती है या नहीं और क्या इसे हिंदी पट्टी की राजनीति से जोड़ पाने में सफल हो पाएगी?

खड़गे के सामने एक बहुत बड़ी चुनौती यह स्पष्ट संदेश देना भी है कि वह नेहरू-गांधी परिवार के प्रतिनिधि नहीं हैं। जबकि खड़गे स्वयं और गांधी परिवार इस तथ्य से अवगत हैं कि पूरा देश और पूरी कांग्रेस पार्टी यह जानती है कि कांग्रेस का असली सत्ता केंद्र कहाँ है।

ऐसे में भारत जोड़ो यात्रा पर निकले कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने संकेत दिया है कि खड़गे अपनी भूमिका खुद तय करेंगे। राहुल ने कहा है कि मैं कांग्रेस अध्यक्ष की भूमिका पर टिप्पणी नहीं कर सकता, यह खड़गे के लिए टिप्पणी करने के लिए है। अध्यक्ष तय करेंगे कि मेरी भूमिका क्या है और मुझे कहां तैनात किया जाएगा।"

 खड़गे के सामने चुनौती यह है कि वह अपनी स्वतंत्रता का दावा कैसे करेंगे। यह देखना दिलचस्प होगा कि खड़गे कैसे निर्णय लेते हैं और क्या बदलाव लाते हैं क्योंकि उनके हर निर्णय जांच के दायरे में होंगे और यह देखने के लिए कि क्या वह किसी बाहरी प्रभाव में काम कर रहे हैं या नहीं, इसका बारीकी से अवलोकन और विश्लेषण किया जाएगा। 

मल्लिकार्जुन खड़गे कम बोलने वाले नेता हैं लेकिन एक मजबूत दिमाग और स्वतंत्र विचार रखते हैं। उनकी सबसे बड़ी खूबी है कि वे सामूहिक दृष्टिकोण में विश्वास करते हैं। वे कितने कांग्रेसी नेताओं को अपने साथ लेकर चल पाएंगे अब इसकी असली परीक्षा होगी।

संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन को संभालना

वर्ष 2004 से 2014 तक कांग्रेस ने लगातार दो बार केंद्र में सरकारें बनाईं। हालांकि दोनों बार कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला लेकिन उसने अपनी विचारधारा वाले क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन करके संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) बनाया और सरकार चलाई। सोनिया गांधी अब वस्तुतः समाप्त हो चुकी यूपीए की अध्यक्ष हैं और गांधी परिवार ने कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ दिया है। मल्लिकार्जुन खड़गे को एक अहम सवाल से जूझना होगा कि क्या कांग्रेस को ममता बनर्जी, नीतीश कुमार और उद्धव ठाकरे जैसे कुछ क्षेत्रीय नेताओं को आमंत्रित करके और उन्हें नेतृत्व की भूमिका देकर संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) में सुधार करने की कोशिश करनी चाहिए ? वैसे खड़गे, हर कांग्रेस नेता की तरह, मानते हैं कि कांग्रेस के बिना कोई विपक्षी समूह नहीं हो सकता है। लेकिन अब समय बदल चुका है। चुनावी रूप से पुनर्जीवित होने के लिए संघर्ष कर रही कांग्रेस पार्टी के साथ, कई क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं को प्रदर्शित कर रहे हैं। खड़गे के सामने चुनौती है कि इन मतभेदों को समेटने और कम से कम प्रतीकात्मक रूप से इन दलों के साथ एकता दिखाने की होगी। मल्लिकार्जुन खड़गे बेहद अनुभवी नेता हैं। उनके पास शरद पवार, बनर्जी, एमके स्टालिन, ठाकरे और नीतीश कुमार जैसे क्षेत्रीय क्षत्रपों से निपटने का कद है। कांग्रेस के लिए यह निश्चित रूप से एक फायदे और राहत की बात है। उधर खड़गे के लिए भी राहत की बात यह है कि अपनी भारी चुनावी गिरावट के बावजूद, कांग्रेस अभी भी विपक्ष में एकमात्र ऐसी पार्टी है जो पूरे राष्ट्रीय स्तर पर है।बाकी दलों को भाजपा को चुनौती देने के लिए उस जगह को तराशना होगा। कांग्रेस, नीतीश कुमार और लालू प्रसाद को यह समझाने में कामयाब रही है कि कांग्रेस के बिना कोई  विपक्षी समूह व्यवहार्य नहीं हो सकता है। लेकिन असली बात यह है कि कुछ क्षेत्रीय पार्टियों का एक समूह चाहता है कि कांग्रेस के बिना विपक्षी एकता बने, दूसरा कांग्रेस को एक घटक के रूप में चाहता है, और दूसरा इसमें कांग्रेस की केंद्रीय भूमिका को स्वीकार करता है। ऐसे में इस मोर्चे पर मल्लिकार्जुन खड़गे का काम आसान दिखाई नहीं दे रहा।

 पार्टी में केंद्रीय संगठनात्मक सुधार

मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा है कि पार्टी के उदयपुर घोषणापत्र को लागू करना उनका मुख्य एजेंडा है। यह देखना होगा कि वे पार्टी को एक व्यक्ति-एक पद नियम लागू करने, युवा चेहरों (50 वर्ष से कम आयु) को नेतृत्व के पदों पर लाने, जवाबदेही तय करने व एक परिवार जैसे संकल्पों को लागू करने में कितना सफल होते हैं।

खड़गे के लिए बहुत बड़ी परीक्षा संगठनात्मक सुधार होंगे। पहला सवाल यह है कि क्या वह कांग्रेस कार्यसमिति ( सीडब्ल्यूसी ) के लिए होने वाले चुनावों पर जोर देंगे? सीडब्ल्यूसी के चुनाव पिछली बार 1997 में और उससे पहले 1992 में हुए थे और दोनों मौकों पर गैर-गांधी अध्यक्ष थे।

कांग्रेस के संविधान में कहा गया है कि सीडब्ल्यूसी में पार्टी अध्यक्ष, संसद में कांग्रेस पार्टी के नेता और 23 अन्य सदस्य शामिल होंगे, जिनमें से 12 सदस्य एआईसीसी का चुनाव करेंगे। सीडब्ल्यूसी के लिए चुनाव, संसदीय बोर्ड तंत्र का पुनरुद्धार, और लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए टिकट तय करने वाली एक वास्तविक केंद्रीय चुनाव समिति का गठन जी-23 समूह की प्रमुख मांगें हैं, जिनके नेताओं ने खड़गे का समर्थन किया है और थरूर को धोखा दिया, ये सभी नेता अगस्त 2020 में सोनिया गांधी को लिखे गए पत्र के हस्ताक्षरकर्ता थे। वैसे, मल्लिकार्जुन खड़गे जी-23 समूह के बारे में पूछने पर इसे खारिज कर देते हैं। 

युवा जोश व बुजुर्गों के अनुभव में तालमेल

मल्लिकार्जुन खड़गे के सामने एक और बड़ी चुनौती पार्टी में युवाओं और बुजुर्गों के बीच की खाई को पाटना है। खड़गे का सभी आयु वर्ग के नेताओं ने समर्थन किया है। लेकिन युवा नेताओं और दिग्गजों के बीच दरार कई राज्यों में दिखाई दे रही है, खासकर राजस्थान में जहां अशोक गहलोत और सचिन पायलट की लड़ाई चल रही है। महत्वपूर्ण और गम्भीर बात यह है कि राजस्थान अकेला राज्य नहीं है। यह घटनाक्रम केरल, तेलंगाना, गोवा , दिल्ली और पंजाब जैसे कई राज्यों में चल रहा है।

कांग्रेस के लिए राहत बात है कि शशि थरूर की उम्मीदवारी ने कुछ युवा नेताओं को उत्साहित किया और शायद यह एक संकेत था कि पार्टी में कई लोग मानते हैं कि बदलाव की जरूरत है।पूरी चुनावी प्रक्रिया में ऐसा महसूस हुआ कि जहां सोनिया पीछे हटने के लिए तैयार हैं, वहीं राहुल गांधी और उनका खेमा और प्रियंका गांधी वाड्रा सक्रिय हैं। खड़गे के सामने चुनौती नए नेताओं और दिग्गजों की आकांक्षाओं और महत्वाकांक्षाओं को समेटने की होगी। बात जब जब कांग्रेस में आंतरिक झगड़ों की आती है तो सोनिया को हमेशा एक तटस्थ मध्यस्थ के रूप में देखा जाता था, सवाल यह है कि क्या खड़गे को ऐसी स्थिति का आनंद मिलेगा या क्या कांग्रेस नेता राहुल गांधी के 12, तुगलक लेन निवास के लिए एक रास्ता बनाना जारी रखेंगे।उम्मीद है कि उदयपुर घोषणापत्र में युवा चेहरों को नेतृत्व की भूमिकाओं में लाने पर जोर देने से खड़गे का काम बहुत आसान हो जाएगा। लगता है कि शायद यह घोषणापत्र गांधी परिवार के एक तरफ हटने के फैसले को ध्यान में रखते हुए बनाया गया था।

चलते-चलते

21 जुलाई 1942 को जन्मे मल्लिकार्जुन खड़गे केवल 7 साल के थे जब उन्होंने अपनी मां-बहन को आंखों के सामने जिंदा जलते देखा था। देश की आजादी के समय 1948 में हुई इस लोमहर्षक घटना का अभी तक खुलासा नहीं हुआ था। मल्लिकार्जुन खड़गे के बेटे प्रियांक ने एक न्‍यूज चैनल से बातचीत के दौरान इस वाकये का ज‍िक्र क‍िया। प्रियांक ने बताया कि कैसे उनके पिता मल्लिकार्जुन और दादा मपन्ना उस हादसे में बच गए थे। हैदराबाद के निजाम के रजाकारों (एक निजी सेना या मिलिशिया) ने उनके घर को जला दिया था। प्रियांक के अनुसार निजाम के रजाकारों ने पूरे क्षेत्र में तोड़फोड़ की, लूटपाट की और घरों पर हमला किया, जिसे तब हैदराबाद राज्य कहा जाता था। भालकी, कर्नाटक के आधुनिक बीदर जिले में महाराष्ट्र तक के कई अन्य गांवों की तरह घेराबंदी के अधीन था। प्रियांक का कहना है क‍ि मेरे दादाजी खेतों में काम कर रहे थे। तभी एक पड़ोसी ने उन्हें बताया कि रजाकारों ने उनके टिन की छत वाले घर में आग लगा दी है। रजाकार देखते ही देखते हर गांव पर हमला कर रहे थे। वे चार लाख की मजबूत सेना थे और अपने दम पर काम कर रहे थे क्योंकि उनके पास कोई नेता नहीं था। मेरे दादाजी घर पहुंचे, लेकिन केवल मेरे पिता को बचा सके, जो उनकी पहुंच के भीतर थे। मेरी दादी और चाची को बचाने में बहुत देर हो चुकी थी, जिनकी इस त्रासदी में हत्या हो गई।

रजाकार हैदराबाद के निजाम की न‍िजी सेना या मिलिशिया थे, जिन्होंने निजामों के खिलाफ आजादी के लिए लड़ रहे सैकड़ों क्रांतिकारियों को उस समय मार डाला, जब भारत अंग्रेजों से आजादी का जश्न मना रहा था। तत्कालीन हैदराबाद के लोग मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन (एमआईएम) के बैनर तले इस अर्धसैनिक बल के खिलाफ लड़ रहे थे। 

1920 के दशक में शुरू किया गया एमआईएम पहले मुस्लिम समुदाय के लिए एक सांस्कृतिक और धार्मिक मंच के रूप में शुरू हुआ, लेकिन बाद में लातूर के एक वकील कासिम रिज़वी के नेतृत्व में एक उग्रवादी मोड़ ले लिया। कहा जाता है कि निजाम शासन की रक्षा के नाम पर उसने कई अत्याचार किए और विरोध करने वालों को मार डाला। वर्ष 1947 में रजाकारों ने हैदराबाद के लोगों से या तो पाकिस्तान में शामिल होने या एक अलग मुस्लिम राज्‍य बनाने का आह्वान किया था।

इस हमले में बच जाने के बाद मल्लिकार्जुन खड़गे ने हिम्मत नहीं हारी और मेहनत से बुलंदियों को छू लिया। खड़गे छात्र राजनीति में सक्रिय थे और 1964-65 में गुलबर्गा के गवर्नमेंट आर्ट्स एंड साइंस कॉलेज में छात्र संघ के महासचिव थे। वे 1966-67 में स्टूडेंट्स यूनियन लॉ कॉलेज, गुलबर्गा के उपाध्यक्ष थे और 1969 में गुलबर्गा सिटी कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बने। खड़गे ने 1972 और 2009 के बीच कर्नाटक में नौ बार विधायक के रूप में कार्य किया और शिक्षा, राजस्व, ग्रामीण विकास और बड़े और मध्यम उद्योग, परिवहन और जल संसाधन सहित मंत्री के रूप में कई विभागों को संभाला। वे 2005 से 2008 तक कर्नाटक कांग्रेस के अध्यक्ष रहे और 1996-99 और 2008-09 तक उन्होंने राज्य विधानसभा में विपक्ष के नेता के रूप में भी कार्य किया। खड़गे 2009 और 2014 में लोकसभा के लिए चुने गए और 2020 में राज्यसभा के लिए चुने गए। अब कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष की नई पारी में वे कितने सफल हो पाएंगे यह समय बताएगा।






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