केंद्रीय जांच एजेंसियों के संगीनों के साये में विपक्ष

देश के वर्तमान हालातों को देखकर किसी ने कमेंट किया कि ईडी (इंफोर्समेंट डायरेक्टरेट ), सीबीआई (सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इंवेस्टिगेशन), इन्कम टैक्स डिपार्टमेंट (आईटी) आदि सभी जांच एजेंसियों को देश के हर घर में छापा मारना चाहिए ताकि पता चल सके कि आखिर इतनी महंगाई के बावजूद आम जनता का घर कैसे चल रहा है ?

बेशक यह व्यंग्यात्मक टिप्पणी अतिश्योक्ति लगती हो मगर यह कड़वी सच्चाई है कि कमरतोड़ महंगाई के कारण आम जनता का जीना मुहाल हो गया है। दूसरी तरफ ये केंद्रीय जाँच एजेंसियां धड़ाधड़ छापेमारी करके कथित रूप से हजारों करोड़ रुपये की अवैध रूप से अर्जित सम्पत्तियों का खुलासा कर रही हैं। मगर विपक्ष है कि इन छापेमारियों में बड़ा झोल बता रहा है और केन्द्र सरकार पर हमलावर हो रहा है।

इन जाँच एजेंसियों के बारे में विपक्ष जिस तरह बयानबाजी कर रहा है उससे लगता है कि इन एजेंसियों द्वारा राजनीतिक हित साधने की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता। इस समय केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा और एनडीए सरकार में शामिल दलों को छोड़कर बाकी सभी राजनीतिक पार्टियां ईडी, सीबीआई और आईटी एजेंसियों के दुरुपयोग की शिकायत कर रही हैं। वजह साफ है कि सत्तारूढ़ पार्टी व उसके समर्थक दलों के किसी भी नेता के खिलाफ कोई भी जांच एजेंसी कार्यवाही नहीं कर रही हैं चाहे उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के कितने ही आरोप हों जबकि अनेक विपक्षी नेताओं के खिलाफ ये एजेंसियां काफी एक्टिव हैं।

मसलन बिहार में 24 अगस्त 2022 को विधानसभा में फ्लोर टेस्ट होने से पहले उसी दिन केंद्रीय जांच एजेंसी सीबीआई ने राजद के कोषाध्यक्ष और एमएलसी सुनील सिंह, पूर्व एमएलसी सुबोध राय, राज्यसभा सांसद फैयाज अहमद और राज्यसभा सांसद अशफाक करीम के प्रतिष्ठानों में जॉब के बदले जमीन मामले में देश भर में छापेमारियां कीं।

हाल ही में दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया से सीबीआई ने कथित शराब घोटाले में पूछताछ की है। ईडी भी उनपर छापेमारी की तैयारी में बताई जा रही है।

आम आदमी पार्टी (आप) के दिल्ली सरकार में मंत्री सत्येंद्र जैन मनी लॉन्ड्रिंग के एक मामले में ईडी की हिरासत में हैं। 

उधर, नेशनल हेराल्ड मामले में सोनिया गांधी और राहुल गांधी से ईडी की लंबी पूछताछ हो चुकी है। केंद्रीय एजेंसियों के रडार पर रहे नेताओं की ये सूची काफी लंबी है। फारुख अब्दुल्ला से मनी लांड्रिंग मामले में पूछताछ के बाद उनके खिलाफ चार्जशीट दायर की गई है।

पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी से अवैध खनन मामले में अप्रैल में ईडी की पूछताछ हुई। मार्च में ईडी ने कोयला घोटाले मामले में पूछताछ की। महाराष्ट्र सरकार में मंत्री नवाब मलिक को मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में 23 फरवरी 2022 को ईडी ने अरेस्ट कर लिया था।

पी. चिदंबरम और डीके शिवकुमार जैसे नेता भी ईडी के शिकार रहे हैं। तीन साल पहले राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के प्रमुख शरद पवार को भी ईडी ने समन भेजा था। हाल ही में शिवसेना सांसदों संजय राउत और अनिल परब से भी पूछताछ की गई है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे सांसद अभिषेक बनर्जी और उनके करीबी मंत्री पार्थ चटर्जी की गिरफ्तारी भी चर्चा में है।

दूसरी तरफ, भाजपा के अनेक नेताओं पर भ्रष्टाचार में शामिल होने के आरोप लग चुके हैं। इनमें कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा, असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान व कर्नाटक के  रेड्डी बंधु शामिल हैं। इन रेड्डी भाइयों पर 16000 करोड़ रुपये से ज्यादा के खनन घोटाले में शामिल होने का आरोप है।

जब हिमंता बिस्वा सरमा के कांग्रेस में थे तो भाजपा ने उन पर अमेरिकी कंपनी लुइस बर्गर को ठेके सौंपने के आरोप लगाए थे। लेकिन उनके भाजपा में शामिल होते ही यह मामला ठंडे बस्ते में चला गया।

देशभर में कुख्यात व्यापम भर्ती घोटाले का अब कहीं जिक्र भी नहीं है। सीबीआई इस मामले में शिवराज सिंह चौहान को क्लीन चिट दे चुकी है। इसी तरह उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक और शिवसेना नेता नारायण राणे के खिलाफ भी भ्रष्टाचार के कई मामले थे। लेकिन राणे के बीजेपी में शामिल होने के बाद अब उनके खिलाफ मामलों की कोई चर्चा नहीं है। बंगाल के सारदा और रोज वैली चिटफंड घोटाले में शामिल बीजेपी के नेताओं को इन जांच एजेंसियों द्वारा अब तक एक बार भी पूछताछ के लिए नहीं बुलाया गया है।

ईडी, सीबीआई और आईटी आदि एजेंसियों द्वारा कथित रूप से सताए गए विपक्षी नेताओं और कथित रूप से माफ कर दिए गए सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं की लिस्ट काफी लंबी है। 

विपक्षी नेताओं की स्थिति कितनी विकट हो चुकी है, वह इससे समझी जा सकती है कि आरजेडी, शिवसेना, डीएमके, एमडीएमके, टीआरएस, नेशनल कॉन्फ्रेंस, सीपीआई, सीपीएम, आरएसपी समेत कई विपक्षी दलों ने देश की नई राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के कार्यभार संभालते ही उनके सामने इन जाँच एजेंसियों से बचाने की गुहार लगा दी है। इन विपक्षी दलों ने राष्ट्रपति को 26 जुलाई 2022 को एक चिट्ठी लिखकर केंद्र सरकार पर कई गंभीर आरोप लगाते हुए उनके हस्तक्षेप की मांग की है। चिट्ठी में राष्ट्रपति मुर्मू से अपील की गई है कि मौजूद सरकार लगातार विपक्षी नेताओं को टारगेट कर रही है और इसके लिए वो केंद्रीय एजेंसियों मसलन सीबीआई और ईडी का दुरुपयोग कर रही है। चिठ्ठी के माध्यम से गुहार लगाई गई है कि मोदी सरकार द्वारा अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ प्रतिशोध की मंशा से केंद्रीय जांच एजेंसियों द्वारा निरंतर और तीव्र दुरुपयोग किया जा रहा है। इसलिए आपको पत्र लिखकर मौजूदा हालात में केंद्र सरकार की कार्यशैली से आपको अवगत कराया जा रहा है। इस चिठ्ठी में विपक्षी नेताओं ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से अपील की है कि वो इस मामले की गंभीरता को समझते हुए तत्काल मामले में संज्ञान लें और स्वस्थ्य लोकतंत्र की परंपरा को बचाने के लिए फौरन आवश्यक हस्तक्षेप करें। विपक्षी दलों का कहना है कि केंद्र सरकार इस बात को समझने का प्रयास करे कि कानून, कानून है और इसे बिना किसी डर या पक्षपात के समान रूप से लागू किया जाना चाहिए। लेकिन कानून का गलत इस्तेमाल नहीं होना चाहिए और इसके बेजा उपयोग पर तुरंत लगाम लगानी चाहिए क्योंकि वर्तमान सरकार के समय में इसका मनमाने ढंग से, चुनिंदा मामलों में और बिना किसी औचित्य के केवल और केवल विपक्षी दलों के नेताओं के खिलाफ किया जा रहा है। राष्ट्रपति को लिखा गया है कि केंद्र की दूषित मानसिकता से चलाये जा रहे अभियान का एकमात्र उद्देश्य विपक्षी नेताओं की प्रतिष्ठा को नष्ट करना और भाजपा के खिलाफ वैचारिक और राजनीतिक रूप से लड़ने वाली ताकतों को कमजोर करना है। चिठ्ठी के अंत में विपक्ष ने लिखा है कि हमारा एक ही प्रयास है कि देश के लोगों का ध्यान आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में हो रही वृद्धि, बढ़ती बेरोजगारी और आजीविका के नुकसान के साथ-साथ  जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति की बढ़ती असुरक्षा के प्रति उन्हें जागरूक किया जा सके।

अब सवाल उठता है कि क्या देश में यह पहली बार हुआ है कि केंद्र सरकार पर केंद्रीय जांच एजेंसियों द्वारा विपक्षी नेताओं को सताए जाने के आरोप लगे हों ? अगर राजनीतिक इतिहास को खंगाला जाए तो इसका जवाब है, नहीं। हर सरकार में विपक्ष दल इन जांच एजेंसियों के दुरुपयोग की शिकायत करते हैं।

याद कीजिए, सीबीआई ने 13 अप्रैल 2010 को सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दायर किया, जिसमें कहा गया था कि यह साबित करने के लिए सबूत हैं कि बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती और उनके परिवार के सदस्यों ने अपनी आय के कानूनी स्रोत से कहीं अधिक संपत्ति अर्जित की थी। लेकिन, दस दिन बाद, सीबीआई ने अदालत से कहा कि आयकर अधिकारियों द्वारा पारित अनुकूल आदेशों के मद्देनजर पूरे मामले पर फिर से विचार करने के लिए समय की आवश्यकता होगी। इसके चार दिन बाद ही विपक्ष सरकार की नीतियों को नामंजूर करते हुए डीज़ल और पेट्रोल की कीमतों में बढ़ोत्तरी के ख़िलाफ़ कटौती प्रस्ताव लेकर आया। मगर, बसपा के 21 सांसदों ने इस मुद्दे पर यूपीए सरकार को समर्थन दे दिया। सबसे मजेदार बात यह रही कि बसपा सुप्रीमो मायावती ने कहा कि बढ़ती महंगाई के कारण उनकी पार्टी को कटौती प्रस्ताव पर केंद्र सरकार का विरोध करना चाहिए था, लेकिन बसपा नहीं चाहती कि इन मुद्दों की आड़ में केंद्र में सांप्रदायिक ताकतें फिर से सत्ता में वापस आएँ। इससे पता चलता है कि सिर्फ एनडीए ही नहीं यूपीए सरकार पर भी केंद्रीय जांच एजेंसियों के दुरुपयोग के आरोप लगे हैं या उनके छापों में संदिग्धता रही है।

याद होगा ही कि कोलगेट घोटाले की सुनवाई के दौरान 2013 में, सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश ने सीबीआई को पिंजरे में बंद तोता कहा था जो अपने मालिक की आवाज का जवाब देता है।उस समय कांग्रेस सरकार पर भ्रष्टाचारियों को बचाने और यूपीए गठबंधन के सहयोगियों और राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को दूर रखने के लिए जांच एजेंसी का दुरुपयोग करने का आरोप लगाया जा रहा था।

सीबीआई के दो पूर्व निदेशकों ने 2013 में विश्वप्रसिद्ध न्यूज एजेंसी रॉयटर्स को बताया था कि सीबीआई राजनीतिक प्रभाव के अधीन है, चाहे कोई भी पार्टी सत्ता में हो। इसके पूर्व निदेशक जोगिंदर सिंह ने कहा था कि राजनीतिक वर्ग सीबीआई को कभी आजादी नहीं देगा।


क्या है सीबीआई और क्यों है ये इतनी शक्तिशाली

सीबीआई का इतिहास दूसरे विश्वयुद्ध से शुरू होता है जब भारत में चल रही औपनिवेशिक सरकार के खर्च में काफी बढ़ोतरी हो गई थी। इसके चलते रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार की शिकायतें भी काफी बढ़ गई थीं। स्थानीय पुलिस इस प्रकार के मामलों की जांच करने में सक्षम नहीं थी अतः सरकार को इसके लिए एक अलग एजेंसी की जरूरत महसूस हुई। इसलिए 1941 में युद्ध और आपूर्ति विभाग में रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार के मामलों की जांच-पड़ताल के लिये विशेष पुलिस प्रतिष्ठान (स्पेशल पुलिस एस्टेब्लिशमेंट यानी एसपीई) बनाया गया। इसका मुख्यालय लाहौर में बना।

लेकिन विश्वयुद्ध खत्म होने के बाद भी एक केंद्रीय जांच एजेंसी की जरूरत थी। अतः 1946 में दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान अधिनियम यानी डीएसपीई एक्ट बनाया गया। इसकी कमान गृह विभाग को दी गई और इसके दायरे में भारत सरकार के सभी विभागों को शामिल कर लिया गया। वर्ष 1963 में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने एक प्रस्ताव के जरिये दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान का नाम बदलकर सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन (सीबीआई) कर दिया। शुरुआती दिनों में इसके अधीन केंद्र सरकार के सभी कर्मचारियों के भ्रष्टाचार के मामले आते थे, फिर इसके दायरे में सार्वजनिक उपक्रमों के कर्मचारियों को भी शामिल कर दिया गया।

सरकार का खर्च बढ़ने, नये-नये सार्वजनिक उपक्रमों के खुलने और 1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण की वजह से सीबीआई का काम बहुत तेज़ी से बढ़ने लगा। इसके साथ ही इसके कार्यक्षेत्र को व्यापक बनाने के प्रयास भी होते रहे हैं। शुरुआत में इसके अधीन जनरल ऑफेंसेज (एंटी करप्शन) विंग और इकनॉमिक ऑफेंसेज विंग दो ही विंग्स हुआ करती थीं।

कुछ समय बाद, हत्या, अपहरण और आतंकी घटनाओं जैसे अपराधों की जांच सीबीआई से करवाने की मांग भी होने लगी फलस्वरूप इसकी स्पेशल क्राइम विंग अस्तित्व में आई।

अभी भी सीबीआई डीएसपीई एक्ट से संचालित हो रही है जिसमें भ्रष्टाचार निरोधक कानून 1988 और लोकपाल कानून 2013 के हिसाब से कुछ संशोधन भी हुए हैं। डीएसपीई एक्ट की धारा पांच इसके तहत बनाये गये किसी भी विशेष पुलिस बल की शक्तियों और अधिकार क्षेत्र को राज्यों तक बढ़ाने का अधिकार देती है। लेकिन, उसके इस अधिकार को इसी कानून की धारा छह सीमित कर देती है। धारा छह के अनुसार सीबीआई की शक्तियों और अधिकार क्षेत्र को संबंधित राज्य सरकार की सहमति के बिना किसी भी राज्य क्षेत्र में लागू नहीं किया जा सकता। सीबीआई किसी राज्य में तभी किसी मामले की जांच का जिम्मा ले सकती है जब वहां की सरकार इसके लिए अनुरोध करे और केंद्र सरकार इस पर सहमति दे दे। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट या फिर कोई हाई कोर्ट भी उसे किसी मामले की जांच अपने हाथ में लेने का आदेश दे सकते हैं। 

भ्रष्टाचार निरोधक कानून, 1988 के तहत दर्ज मामलों की जांच से संबंधित सीबीआई का अधीक्षण केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) के पास होता है। अन्य मामलों के लिए यह काम केंद्र सरकार का कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) विभाग करता है जो सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय के तहत आता है। यही वजह है कि अक्सर ऐसे मामलों की जांच को लेकर सीबीआई पर सवाल उठते रहते हैं जिनके तार राजनीति और राजनेताओं से जुड़ते हैं। ऐसे में बयानबाजी होने लगती है कि केंद्र सरकार, अपने विरोधियों को काबू करने के लिए सीबीआई का इस्तेमाल करती है।

अत्यंत महत्वपूर्ण बात यह है कि गुवाहाटी हाईकोर्ट ने अपने एक आदेश में कहा है कि सीबीआई का गठन निश्चित जरूरत को पूरा करने के लिए कुछ समय के लिए ही किया गया था और इस संबंध में 1963 का गृह मंत्रालय का वह प्रस्ताव न तो केंद्रीय कैबिनेट का फैसला था और न ही उसके साथ राष्ट्रपति की स्वीकृति का कोई कार्यकारी आदेश था। कोर्ट के अनुसार ऐसे में सीबीआई को दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेब्लिशमेंट एक्ट (डीएसपीई एक्ट) के तहत बनाया गया विशेष पुलिस बल नहीं माना जा सकता। अभी यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है और विशेषज्ञों का मानना है कि वह भी इस मामले में हाई कोर्ट के फैसले को सही ठहरा सकता है।

इंफोर्समेंट डायरेक्टरेट (ईडी) से विपक्ष इतना क्यों डरा हुआ है

इनकम टैक्स डिपार्टमेंट को जो अधिकार मिले हैं, उसके तहत वित्तीय घोटाले के अपराधी को कड़ी सजाएं नहीं दी जा सकतीं। इनकम टैक्स डिपार्टमेंट के पास जुर्माना लगाने जैसे प्रावधानों ही हैं। ऐसे में ईडी ही भ्रष्टाचार के ज्यादातर मामले संभाल रही है। ईडी को मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट के तहत बड़े अधिकार दिए गए हैं। 

ईडी वह खुफिया एजेंसी है, जो देश में वित्तीय मामलों से जुड़े सभी बड़े अपराधों पर नजर रखती है। यह एजेंसी मनी लॉन्ड्रिंग मामलों की जांच करती है, इसके प्रमुख कार्यों में फेमा, 1999 के उल्लंघन से जुड़े मामलों, हवाला लेनदेन और फॉरेन एक्सचेंज के मामलों की जांच करना शामिल है।

ईडी विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1973 के नियमों के तहत कार्यवाही करता था लेकिन बाद में फेरा को धनशोधन निवारण अधिनियम, 2002 (फेमा) में बदल दिया गया। फेमा में जांच के दौरान या उसके बाद यदि यह पाया जाता है कि संबंधित व्यक्ति या फर्म ने जो संपत्ति जुटाई है या बनाई है, वह पीएमएलए में अधिसूचित 28 कानूनों की 156 धाराओं में दंडित अपराधों से अर्जित की गई है और उसके बाद उसकी मनी लॉन्ड्रिंग की गई है, उस स्थिति में ऐसी संपत्ति को अंतरिम रूप में जब्त किया जा सकता है। मुकदमा पूरा होने पर ऐसी संपत्ति को कुर्क भी किया जाता है। ईडी का गठन बेशक 1957 में ही हो गया था, लेकिन इसे ताकत 2005 में मनी लॉन्ड्रिंग ऐक्ट आने के बाद ही मिली। 

कुल मिलाकर ईडी चार कानूनों से संबंधित है:

1. धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 (पीएमएलए)

यह मनी लॉन्ड्रिंग को रोकने और मनी लॉन्ड्रिंग में शामिल संपत्ति की जब्ती का प्रावधान करने के लिए एक आपराधिक कानून है।

2. विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम, 1999 (फेमा): 

भारत में विदेशी मुद्रा बाजार से संबंधित यह एक नागरिक कानून है। इसके तहत ईडी को विदेशी मुद्रा कानूनों और विनियमों के संदिग्ध उल्लंघनों की जांच करने, कानून का उल्लंघन करने वालों पर निर्णय लेने और दंड लगाने की जिम्मेदारी दी गई है।

3. भगोड़ा आर्थिक अपराधी अधिनियम, 2018 (एफईओए): 

यह कानून उन भारतीय अपराधियों से संबंधित है जो कानूनों से बचने के लिए भारत छोड़ देते हैं। ईडी इसके तहत भगोड़े अपराधियों की संपत्तियों को कुर्क कर सकती है। 

4. विदेशी मुद्रा का संरक्षण और तस्करी गतिविधियों की रोकथाम अधिनियम, 1974 (कोफेकोसा)

इस कानून के तहत, ईडी को फेमा के उल्लंघनों के संबंध में निवारक निरोध के मामलों को प्रायोजित करने का अधिकार है। 

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि ईडी किसी भी आरोपी को गिरफ्तार कर सकती है और गिरफ्तारी होने पर आरोपी को ही जमानत के लिए दो शर्तें पूरी करनी होती हैं। पहली शर्त है कि वह साबित करे कि इस मामले में वह दोषी नहीं है। दूसरी यह है कि यदि वह बाहर निकलेगा तो उससे सबूतों और गवाहों को कोई खतरा नहीं होगा। इसके अलावा ईडी के अधिकारी के समक्ष आरोपी ने जो बयान दिया है, उसे अदालत में सबूत के तौर पर मानने का प्रावधान है। यही वजह है कि ईडी के नाम से ही बड़े-बड़े सूरमाओं के पसीने छूटने लगते हैं। दोषसिद्धि हो या न हो इसमें जमानत मिलना लगभग नामुमकिन सा है।

2005 से अभी तक ईडी की कार्यवाही के आंकड़े

मनमोहन सरकार में 2005 से 2014 तक

ईडी ने कुल 112 छापेमारी की कार्यवाहियां की थीं। इन छापों में  5346 करोड़ रुपये मूल्य की प्रॉपर्टी जब्त की गई। जबकि कुल 104 शिकायतों पर एक्शन लिया गया।

मोदी सरकार 2014 से 2022 तक 

ईडी 2974 छापेमारी कर चुकी है। इन छापों में कुल 95,432 करोड़ रुपये मूल्य की संपत्ति जब्त हो चुकी है। इस दौरान 839 शिकायतों पर एक्शन हुआ है।

प्रिवेंशन ऑफ मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट (पीएमएलए) का लेखा जोखा

ईडी जिस आधार पर एक्शन लेती है उसमें एक आधार है प्रिवेंशन ऑफ मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट (पीएमएलए) 2002, ये एक्ट 2005 में लागू हुआ। पीएमएलए के तहत जुलाई 2005 से 31 मार्च 2014 तक यूपीए के नौ वर्षों में कुल 1867 केस दर्ज हुए।

जबकि 2014 से 30 नवंबर, 2021 तक  आठ वर्षों में  2770 केस दर्ज हुए। इनमें से अप्रैल 2021 से 30 नवंबर 2021 के बीच ही ईडी ने 8989 करोड़ रुपये मूल्य की संपत्ति जब्त की है। यह आंकड़ा यूपीए सरकार के मुकाबले कहीं ज्यादा है।

ईडी की वार्षिक रिपोर्ट पर नजर दौड़ाई जाए तो उसके अनुसार साल दर साल ईडी की सक्रियता बढ़ती जा रही है। रिपोर्ट के अनुसार पीएमएलए के तहत वर्ष 2016-17 में ईडी ने 4567 समन भेजे, 226 छापेमारी की कार्रवाईयां हुई और 31 आरोपियों को गिरफ्तार किया गया।

2019-20 में 10688 लोगों को समन भेजा गया, छापेमारी की 335 कार्रवाईयां हुई और 41 आरोपियों को गिरफ्तार किया गया। इसी तरह वर्ष 2020-21 में 12173 लोगों को समन भेजा गया, 596 छापेमारी हुईं और 78 लोग गिरफ्तार किए गए।

इससे स्पष्ट होता है कि जहां सीबीआई देश में शीर्ष जांच पुलिस एजेंसी के रूप में कार्य करती है, वहीं ईडी मनी ट्रेल का अनुसरण करती है। इसका कार्य मनी लॉन्ड्रिंग की जांच करना है। हालांकि, दोनों एजेंसियां कई बार एक ही मामले पर काम करती हैं, जैसे कि पश्चिम बंगाल स्कूल भर्ती मामले में जहां सीबीआई आपराधिक पहलुओं की जांच कर रही है और ईडी मनी लॉन्ड्रिंग पहलुओं को देख रही है।

ईडी इतनी खतरनाक क्यों दिखाई देती है

ईडी के पास ऐसी शक्तियों का एक समूह है जो राज्य पुलिस बलों के पास या सीबीआई के पास भी नहीं है। पीएमएलए के तहत एक जांच अधिकारी (आईओ) के समक्ष दर्ज एक बयान अदालत में सबूत के रूप में स्वीकार्य है। जबकि पुलिस को दिया बयान अदालत में स्वीकार्य नहीं होता। सामान्य परिस्थितियों में केवल मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज बयान ही स्वीकार्य होता है। इसके साथ-साथ पीएमएलए के तहत सभी अपराध गैर-जमानती हैं। ईडी द्वारा कुर्क की गई संपत्ति को वापस पाना बहुत मुश्किल है। जब ईडी किसी आरोपी की संपत्तियों को कुर्क कर लेता है, तो अक्सर संलग्न सम्पत्तियों को पुनः प्राप्त करने के लिए एक लंबी लड़ाई लड़नी पड़ती है।

ये कुछ फैक्टर हैं जो ईडी को बेहद खूंखार एजेंसी बना देते हैं।

गौर से देखा जाए तो ईडी देश में महत्वपूर्ण चुनावों से ठीक पहले या चुनावों के दौरान काफी सक्रिय हो जाती है। 

मसलन, 2019 में आम चुनाव से पहले जनवरी में, ईडी ने मायावती के मुख्यमंत्री के कार्यकाल के दौरान हुए 1,400 करोड़ रुपये के दलित स्मारक घोटाले में यूपी में सात स्थानों पर छापे मारे।

अगस्त 2019 में, ईडी ने नेशनल हेराल्ड मामले से संबंधित कथित अनियमितताओं को लेकर हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा और मोतीलाल वोरा पर कार्रवाई की। महत्वपूर्ण बात यह थी कि इसके तीन महीने बाद हरियाणा विधानसभा चुनाव होने थे।

2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान, ईडी ने मायावती की बहुजन समाज पार्टी से जुड़े खाते में 104 करोड़ रुपये और मायावती के भाई आनंद कुमार के 1.5 करोड़ रुपये का पता लगाने का दावा किया था। 

जिसने नुकीले किये ईडी के दाँत अब वही ईडी निशाने पर

राजनीति से प्रेरित मामलों के आरोप में विपक्षी नेताओं पर ईडी के दुरुपयोग के आरोप नरेंद्र मोदी के कार्यकाल से पहले भी खूब लगे हैं।

 मनमोहन सिंह के कार्यकाल दौरान पी. चिदंबरम बेहद शक्तिशाली व्यक्ति थे। ईडी को इतनी अकूत ताकत प्रदान करने का श्रेय भी पी.चिदम्बरम को जाता है। उन्होंने ईडी को इतने अधिकार दे दिए कि देश में इस एजेंसी के समान खूंखार कोई एजेंसी नहीं रही।

चिदंबरम के अधीन ही ईडी ने राजनीतिक मामलों को उठाना शुरू किया। ईडी ने ही मधु कोड़ा मामले, टू जी घोटाले, सीडब्ल्यूजी मामले, सहारा मामले, बेल्लारी खनन मामला जिसमें भाजपा के रेड्डी बंधू शामिल थे, वाईएस जगन मोहन रेड्डी से जुड़े वैनपिक परियोजना मामले और यूपीए शासन के दौरान बाबा रामदेव के खिलाफ मामलों में कार्यवाही की थी। 

लेकिन 2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद ईडी ने रामदेव और उनके सहयोगी बालकृष्ण के खिलाफ मामले बंद कर दिए। 

ईडी के अलावा 2010 में, जब पी. चिदंबरम गृह मंत्री थे, सीबीआई ने सोहराबुद्दीन शेख फर्जी मुठभेड़ मामले में भाजपा नेता अमित शाह को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया था।  लेकिन उन्हें 2014 में बरी कर दिया गया था। 

विडंबना यह है कि चिदंबरम जिन्होंने ईडी को इतना ताकतवर बनाया अगस्त 2019 में खुद ईडी के शिकंजे में आ गए और उन्हें गिरफ्तार होना पड़ा।

ईडी ने पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम के खिलाफ धन शोधन मामले में मामला दर्ज कर लिया। जांच एजेंसी को संदेह था कि आईएनएक्स मीडिया एवं एयरसेल-मैक्सिस के अलावा कम से कम चार और कारोबारी सौदों में कथित अवैध एफआईपीबी मंजूरी देने में उनकी संदिग्ध भूमिका थी। साथ ही, कई मुखौटा कंपनियों (शेल कंपनियों) के मार्फत करोड़ों रुपये की रिश्वत ली थी। ईडी ने बताया कि कुछ ऐसे भी सबूत मिले हैं, जिनके मुताबिक अवैध विदेशी निवेश प्रोत्साहन बोर्ड’’ (एफआईपीबी) एवं ‘‘प्रत्यक्ष विदेशी निवेश(एफडीआई) मंजूरी प्रदान करने के एवज में चिदंबरम और उनके बेटे कार्ति चिदंबरम द्वारा कथित तौर पर रिश्वत लेने के बाद एक शेल कंपनी में गैरकानूनी ढंग से 300 करोड़ रुपये से अधिक राशि कथित तौर पर डाली गई थी।

यानी समय का पहिया उल्टा घूम गया शिकारी अब खुद शिकार हो गया!

ईडी की छापेमारियों व गिरफ्तारियों का अंतिम सच

ईडी द्वारा बेशक हजारों छापेमारी की गई हों, सैंकड़ों आरोपियों को गिरफ्तार किया गया हो और हजारों करोड़ रुपये मूल्य की संपत्तियों को जब्त किया गया हो। लेकिन यह आखिरी सच नहीं है, वर्तमान में भारत की यह सबसे ताकतवर एजेंसी न्यायालयों में आरोपियों के आरोप सिद्ध करवाने में फिसड्डी साबित हुई है।

ईडी की ओर से दर्ज केसों में आरोपी के दोषी सााबित होने की दर बेहद कम है। 

आंकड़ों के अनुसार बीते 17 वर्षों में ईडी ने मनी लॉन्ड्रिंग के 5,400 केस दर्ज किए हैं। लेकिन इसके तहत अब तक केवल 23 लोगों को ही दोषी ठहराया गया है। ईडी का कनविक्शन रेट महज 0.5 परसेंट ही है, यह बेहद छोटा आंकड़ा है। तुर्रा यह है कि ईडी की छापेमारी की दर में लगातार बढ़ोतरी हो रही है लेकिन सजा बहुत कम को मिल रही है। ईडी के अदालत में अभियोग साबित करने में असफल रहने पर अकसर सवाल उठते रहे हैं। विपक्ष भी इसी बात को लेकर हल्ला मचा रहा है।

इन जांच एजेंसियों की कार्यवाहियों में फर्क इतना ही है कि सत्तारूढ़ पार्टी या सहयोगी दलों के किसी बड़े नेता के खिलाफ इन जांच एजेंसियों ने कोई खास कार्यवाही नहीं की है। जबकि विपक्ष के अनेक नेता या तो ईडी के चक्कर में जेलों में बन्द हैं या ईडी की पूछताछ का सामना कर रहे हैं। इससे लगता है कि सत्तापक्ष के सभी नेता दूध के धुले हैं और भ्रष्टाचार में केवल विपक्षी नेता ही लिप्त हैं।

मगर, क्या यह वाकई में सच है इसे पाठकों के विवेक पर छोड़ते हैं।

चलते-चलते

फरवरी 2019 में सीबीआई के लगभग 40 अधिकारियों व कर्मचारियों की एक टीम चिटफंड घोटालों के मामलों में पूछताछ की खातिर कोलकाता के पुलिस आयुक्त राजीव कुमार के आवास पर पहुंच गई, लेकिन वहां तैनात पुलिसकर्मियों ने सीबीआई की इस टीम को आवास में दाखिल होने से रोक दिया।

महत्वपूर्ण बात यह रही कि कोलकाता पुलिस ने छापा मारने आये सीबीआई के पांच अधिकारियों को गिरफ्तार करके उन्हें कोलकाता के शेक्सपियर सरानी  पुलिस स्टेशन पर में बन्द कर दिया गया।

इस सनसनीखेज घटनाक्रम के कारण केन्द्र सरकार और खासकर गृह मंत्रालय में हड़कंप मच गया। देश के इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। केन्द्र और पश्चिम बंगाल सरकार के बीच खुलकर तलवारें खिंच गईं। कुछ समय बाद सीबीआई के पांचों गिरफ्तार अधिकारियों को छोड़ दिया गया। गिरफ्तार हुए किसी भी सीबीआई अधिकारी ने मीडिया से बातचीत करने से मना कर दिया। 

इसी दौरान पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पुलिस आयुक्त राजीव कुमार के पक्ष में खुलकर उतर आईं और वे मध्य कोलकाता में कुमार के लाउडन स्ट्रीट स्थित आवास पहुंच गईं। ममता ने आरोप लगाया कि भाजपा पुलिस एवं अन्य सभी संस्थाओं पर नियंत्रण हासिल करने के लिए सत्ता का गलत इस्तेमाल कर रही है।

अचानक हुए इस घटनाक्रम में देश का पूरा विपक्ष एक हो गया। कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष राहुल गांधी, जम्मू कश्मीर के पूर्व सीएम उमर अब्दुल्ला, सपा प्रमुख अखिलेश यादव, राजद नेता तेजस्वी यादव, बसपा प्रमुख मायावती, एनसीपी प्रमुख शरद पवार और दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल ने ममता बनर्जी से फोन पर बात करके सभी ने ममता बनर्जी से मजबूती के साथ जमे रहने को कहा।

ममता बनर्जी सीबीआई के इस छापे के विरुद्ध कोलकाता में रात भर सड़क पर धरने पर बैठी रही।

केन्द्र व राज्य सरकार के बीच खाई इतनी बढ़ गई कि पश्चिम बंगाल सीबीआई जांच के लिए आवश्यक आम सहमति वापस ले ली। 

इसके बाद तो केरल, महाराष्ट्र, राजस्थान,  छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश भी ऐसा कर चुके हैं। हाल ही में झारखंड ने भी सीबीआई को दी गई जांच और छापामारी की अनुमति (जनरल कंसेंट) वापस ले ली है। इसका अर्थ यह है कि अब सीबीआई को इन राज्यों में कोई भी जांच करने से पहले यहां की सरकारों से अनुमति लेनी होगी। इस मामले में केवल वे जांचें ही अपवाद होंगी जिनका आदेश सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट ने दिया हो।

पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा सीबीआई टीम को गिरफ्तार करने की यह घटना काफी दिनों तक मीडिया में छाई रही।

इस घटनाक्रम के बाद से देखा गया है कि गैर भाजपा शासित राज्यों में सीबीआई की बजाय ईडी का इस्तेमाल बढ़ता गया।








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