जीत किसान-मजदूरों की मगर अभी अधूरी

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19th November 2021

आज की सुबह अन्य दिनों की तरह ही हुई थी मगर एक परिचित के फोन ने चौंका दिया। फोन से पता चला कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वे तीन कृषि कानून अचानक वापस ले लिए जिन्हें गेम चेंजर बताया जा रहा था और सरकार इन्हें वापस न लेने की खातिर राजहठ किये हुई थी। अब सरकार कहिये या नरेन्द्र मोदी बात एक ही है। इन कानूनों को वापस लेना कितना शर्मिंदगी और अपमान भरा रहा होगा इस बारे में केवल सोचा ही जा सकता है! शायद यही वजह रही होगी कि नरेन्द्र मोदी ने इसे राष्ट्र को बताने के लिए सुबह-सुबह 9.00 बजे का समय चुना क्योंकि इस समय टीवी पर दर्शकों की संख्या न्यूनतम होती है। अन्यथा अगर क्रेडिट लेने की बात होती तो नरेन्द्र मोदी इसके लिए प्राइम टाइम यानी रात 8.00 बजे को ही चुनते! अब ये भी खोज का विषय हो सकता है कि इस शर्मिंदगी भरे फैसले को सार्वजनिक रूप से बताने के लिए केंद्रीय कृषि मंत्री नरेन्द्र तोमर तैयार क्यों नहीं हुए? क्योंकि वे ही इन नए कृषि कानूनों बारे में संयुक्त किसान मोर्चे से 11 दौर की बातचीत कर चुके थे और मोर्चे को दो टूक कह चुके थे कि किसी भी कीमत पर ये कानून वापस नहीं होंगे।

नरेन्द्र मोदी द्वारा नए कृषि कानूनों को वापस लेना कोई साधारण घटना नहीं है। इसे असाधारण से भी असाधारण मानना चाहिये। क्योंकि मई 2019 में 303 लोकसभा सीटें जीतकर लगातार दूसरी बार बहुमत में आई पार्टी जो फैसला ले ले उसे वापस करवाना किसी के बलबूते की बात नहीं था।


लेकिन पंजाब की वीरभूमि ने इन कानूनों की खामियों को सबसे पहले समझा, सबसे पहले वहाँ धरने प्रदर्शन किए गए। वहाँ बात नहीं बनी तो 26 नवम्बर 2020 को दिल्ली कूच का आह्वान हुआ। इसी दौरान हरियाणा के किसानों ने दिल्ली कूच का जी खोलकर स्वागत किया, साथ हुए फिर तो उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड और राजस्थान के किसान भी दिल्ली की तरफ निकल पड़े। किसानों से डरी सरकार ने दिल्ली की सीमाएं किसानों के लिए सील कर दीं। किसानों ने सिंघु, टीकरी, गाजीपुर, ढांसा और धारूहेड़ा बॉर्डरों पर मोर्चे लगा दिए और अनिश्चितकालीन के लिए बैठ गए।

इन मोर्चों में किसानों की संख्या इतनी ज्यादा थी कि ये आजादी के बाद देश का सबसे बड़ा जनांदोलन था। हर धर्म-जात-बिरादरी-आयु के असंख्य स्त्री-पुरूष सत्याग्रह पर बैठ गए। ये कल्पनातीत था बेहद कल्पनातीत!!!

सरकार थोड़ी सहमी अतः संयुक्त किसान मोर्चे को वार्ता के लिए बुलाया गया मगर राजहठ के चलते नए कृषि कानून वापस नहीं हो पाए। इसी दौरान किसी ने दिल्ली के रास्तों को खोलने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी। सरकार कोर्ट में रास्तों को खोलने की जगह इन कानूनों पर बहस करने लगी जबकि किसान मोर्चे ने इस पर ध्यान ही नहीं दिया। सरकार को यहाँ भी मुँह की खानी पड़ी।

फिर आई 26 जनवरी 2021, किसानों को आखिरी क्षणों में दिल्ली के सीमित क्षेत्र में ट्रैक्टर परेड की अनुमति मिली पर कुछ संदिग्ध लोगों ने इस मामले को दूसरा मोड़ देने का प्रयास किया गया। लालकिले पर जो प्रकरण हुआ उसमें शामिल व्यक्तियों की पहचान तुंरत किसान आईटी सेल ने सार्वजनिक कर दी। ये भाजपा सांसद सन्नी देओल के करीबी निकले, इनके केंद्रीय मंत्रियों के साथ खिंचवाए गए फोटो पलक झपकते ही सोशल मीडिया पर वायरल हो गए।

28 जनवरी 2021 की रात गाजीपुर बॉर्डर पर पुलिस कार्यवाही करके खाली कराने की कोशिश की गई मगर राकेश टिकैत द्वारा मंच पर निकाले गए आंसुओं ने बाजी पलट दी। स्वर्गीय चौधरी अजित सिंह ने सार्वजनिक रूप से किसान आंदोलन को सर्मथन की घोषणा कर दी। तमाम विरोधों के बावजूद अजित सिंह ने राकेश टिकैत को भी पूरा सहयोग दिया। उस रात जिस तरह से दिल्ली बॉर्डरों पर उत्तरप्रदेश और हरियाणा के किसानों की भीड़ उमड़ी उसने तय कर दिया कि अब इस आंदोलन को कुचलना असम्भव है।


केन्द्र सरकार ने यह दर्शाना शुरू कर दिया कि हमें इस आंदोलन से फर्क नहीं पड़ने वाला। लेकिन पश्चिम बंगाल में हुए चुनाव ने बीजेपी की नींद उड़ा दी। संयुक्त किसान मोर्चे ने वहां जाकर खुलकर बीजेपी को वोट न डालने की अपील की और बीजेपी का सफाया हो गया।

2022 की शुरुआत में उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में चुनाव होने हैं। संयुक्त किसान मोर्चे ने उत्तरप्रदेश पर सितम्बर से ही नजरें जमा लीं और मुज्जफरनगर में बेहद विशाल रैली आयोजित कर दी। इस रैली ने बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग की चूलें हिला दीं। हर धर्म के लोगों की भारी ऐतिहासिक भीड़ इस रैली की गवाह बनी।

फिर लखीमपुर खीरी की लोमहर्षक घटना से पूरा देश सिहर उठा। इसमें देश के केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा उर्फ टेनी के बेटे पर आरोप लगा कि उसने शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन कर रहे किसानों को गाड़ी से वहशी तरीके से रौंद डाला और फायरिंग कर दी। इस वहशियाना हमले में 4 किसान और 1 पत्रकार शहीद हो गए। इस कांड से पूरा देश उबल उठा। सभी विपक्षी दलों ने इस कांड की निंदा की। केन्द्र और उत्तरप्रदेश सरकार बुरी तरह बैकफुट पर आ गई। किसी भी नेता को लखीमपुर खीरी नहीं पहुँचने नहीं दिया। दोनों सरकारें कितने दबाव में थीं वह इससे समझा जा सकता है कि किसान नेताओं ने इस प्रकरण में जो भी मांगें रखीं वे तुरंत स्वीकार कर ली गईं। केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा के बेटे आशीष को हत्या के आरोप में गिरफ्तार होना पड़ा। हालांकि नैतिकता के चलते अजय मिश्रा को अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए था लेकिन वह अभी भी पद पर बना हुआ है। इससे भी केन्द्र सरकार की खूब फजीहत हो रही है।

इन सभी घटनाओं के चलते आगामी विधानसभा चुनावों में उत्तरप्रदेश में बीजेपी की स्थिति बड़ी नाजुक हो चली है। विभिन्न सर्वे बताते हैं कि बीजेपी शायद ही प्रदेश में वापसी करे। लेकिन बीजेपी किसी भी सूरत में उत्तरप्रदेश को खोने को तैयार नहीं क्योंकि देश की सत्ता का रास्ता उत्तरप्रदेश से होकर ही जाता है।
यही वजहें रही होंगी कि नरेन्द्र मोदी को रात 8.00 बजे लगाने वाला मास्टरस्ट्रोक सुबह सवेरे 9.00 बजे लगाना पड़ा। अब ये देश की जनता को पूछना है कि 750 मौतों, हजारों मुकदमों, करोड़ों-अरबों रुपये खर्च और लाखों लोगों की सवा साल की हाड़तोड़ तपस्या करवाने के बाद ये कानून वापस लेने थे तो इसका जिम्मेदार कौन है?

वैसे आंदोलनरत किसान अभी मान जाएंगे इसमें अभी संशय है। अभी स्वामीनाथन रिपोर्ट, एमएसपी की गारंटी, गन्ने का बकाया भुगतान और बिजली की उचित दरें आदि अनेक मुद्दे हैं जिनका लगे हाथ समाधान हो जाना चाहिए।
जीत निश्चित रूप से किसान-मजदूर की हुई है लेकिन इन मुद्दों के समाधान के बगैर ये अधूरी है।

अंत में इस जनांदोलन में अपनी जान गंवाने से लेकर इस आंदोलन के प्रति थोड़ी सी भी सहानुभूति रखने वाले हर व्यक्ति का तहेदिल से धन्यवाद। संयुक्त किसान मोर्चे का भी शुक्रिया जिन्होंने इस जनांदोलन को काफी हद तक अराजनीतिक बनाये रखा। इस आंदोलन के समर्थन में इस्तीफा देने वाले देश के एकमात्र विधायक अभय सिंह चौटाला को दोबारा चुनाव जीतने पर शुभकामनाएं।

आखिर ये जनांदोलन ही हैं जिनके कारण शासक निरंकुश नहीं हो पाते। वरना मेरा नरेन्द्र मोदी या बीजेपी के साथ कोई बैर नहीं है। इस प्रकरण से बाकी दलों को भी शिक्षा लेनी चाहिए कि सत्ता में आने के बाद वे भी घमंड में चूर न हों।

जय किसान-जय जवान-जय विज्ञान-जय लोकतंत्र!


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